पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/१८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विनय-पत्रिका करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता । मद, ईर्ष्या, अहकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ ! ( बताइये मुझ-सरीखा नीच और कौन होगा ? ) ॥ ३ ॥ वेदों और पुराणों मे सुनता हूँ तथा समझता हूँ कि श्रीरामजी ही समस्त संसारमें रम रहे हैं, परन्तु मेरे विवेकहीन पापी मनमे यह बात वैसे ही नहीं समाती, जैसे चन्दनकी सुगन्ध बिना गूदेके साररहित बाँसमे नहीं जाती ॥ ४ ॥ हे करुणाकी खानि । मैं तो अपार अपराधोंका समुद्र हूँ-तुमअन्तयोमी सब कुछ जानते हो । अतएव हे गरुड़गामी ! संसाररूपी सर्पसे डसा हुआ यह तुलसीदास तुम्हारी शरणमें पड़ा है। (इसे बचाओ, यह संसाररूपी साँप तुम्हारे वाहन गरुडको देखते ही भयसे भाग जायगा, तुम एक बार इधर आओ तो सही।)॥५॥ [१९८] हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु । ज्यों गज-दसन तथामम करनी, सव प्रकार तुम जानहु ॥१॥ जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय वच्छपद जैसे। रहनि आन विधि, कहिय आन, हरिपद सुख पाइय कैसे ॥२॥ देखत चारु मयूर वयन सुभ बोलि-सुधा इव सानी । सविष उरग-आहार, निठुर अस, यह करनी वह बानी ॥३॥ अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल-अनुरागी। ते तव प्रिय रघुवीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥४॥ जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया। तुलसिदास निज गुन विचार करुनानिधान करु दाया ॥५॥ भावार्थ-हे हरे । मैं किस प्रकार सुख माने ? मेरी करनी