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विनय-पत्रिका
जोइ जोइ कूप खनैगो परकह सो सठ फिरि तेहि कूप पर।
सपनेहु सुखनसंतद्रोहीकहँ सुरतरुसोउ विष-फरनि फरै॥५॥
हैं काके द्वै सीस ईसके जो हठि जनकी सोच चरै।
तुलसिदास रघुवीर वाहवल सदा अभय, काहू न डरै ॥ ६ ॥
भावार्थ-यदि कृपालु रघुनाथजीकी कृपा है, तो दूसरोंके वैर
करनेसे उनका क्या काम निकल सकता है ? भक्कका बाल भी वाँका
नहीं होता, चाहे कोई करोडों उपाय क्यों न करे ॥१॥ जो नीच
सतकी मौत विचारता है वह पामर स्वयं उसी मौतसे मरता
है । प्रह्लादकी कया वेदोंमें प्रसिद्ध है, उसे सुनकर ऐसा कौन
( अभागा ) होगा जो भक्ति मार्गपर पैर न रक्खेगा, यानी भक्ति न
करेगा ? ॥ २॥ श्रीहरिने गजराजका उद्धार किया, विभीषणको राज्य-
सिंहासनपर बैठाया, ध्रुवको ऐसा अटल पद दे दिया जो कभी हटता
ही नहीं और अम्बरीषकी तो बात ही निराली है, महामुनि
(दुर्वासा ) ने जो उनको शाप दिया था, उसका परिणाम याद करके
अब भी वे ग्लानिसे गले जाते हैं, लाजसे मरे जाते हैं ॥३॥
दुर्योधनने आनी जानमें, ऐसी कौन-सी बुराई है, जो पाण्डवोंके साथ
नहीं की । वह मूर्ख अपने ही घमडमें जलता रहा पर भगवान्की
कृपासे सौभाग्य, विजय और यशने पाण्डवोंको ही हठपूर्वक
अपनाया ॥ ४॥ जो दूसरेके लिये कुऑ खोदेगा, वह दुष्ट स्वयं उसीमें
गिरेगा। संतोंके साथ वैर करनेवालेको स्वप्नमें भीसुख नहीं हो सकता।
उसके लिये तो कल्पवृक्ष भी जहरीले फल ही फलेगा ॥ ५॥ किसके
दो सिर हैं जो भगवान्के भक्तकी सीमा लॉधेगा? हे तुलसीदास ।
जिसके श्रीरघुनायजीका बाहु-बल सहायक है, वह सदा निर्भय है,
किसीसे भी नहीं डर सकता ॥ ६॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२२३
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