विनय-पत्रिका जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें?॥३॥ विष पियूष सम करहुअगिनि हिम, तारिसकहु बिनु बेरें। तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहाँ हेरें ॥४॥ यह जिय जानि रही सव तजि रघुबीर भरोसे तेरें। तुलसिदास यह विपति बागुरौ तुम्हहिं सो वनै निवेरें ॥५॥ भावार्थ-हे नाथ ! (केवल तुम्हारा हीभरोसा है) इसी कारणसे मैं पहलेसेही तुम्हारी शरणमे आ गया हूँ। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि साधन तो मेरे पास खप्नमें भी नहीं हैं ( जिनके बलसे मैं ससार- सागरसे पार हो जाता ) ॥१॥ मुझे तो लोभ, अज्ञान, घमंड, काम और क्रोधरूपी शत्रु ही रात-दिन घेरे रहते हैं, ये क्षणभर भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते। इन सबके साथ मिलकर यह मन भी कुमार्गी हो गया है। अब यह तुम्हारे ही फेरनेसे फिरेगा॥ २॥ संतजन और वेद पुकार- पुकारकर कहते हैं कि संसारके यह सब विषय पापोंके घर हैं और शोकप्रद हैं यह जानते हुए भी मेरा उन विषयोंमेही जो इतना अनुराग है सो हेहरि! यह तुम्हारी ही प्रेरणासे तो नहीं है ? (नहीं तो मैं जान- बूझकर ऐसा क्यों करता)॥३॥ (जो कुछ भी हो, तुम चाहो तो) विषको अमृत एवं अग्निको बरफ बना सकते हो और विना ही जहाजोंके संसार-सागरसे पार कर सकते हो । तुम-सरीखा कृपालु और परम हितकारी स्वामी ढूंढ़नेपर भी कहीं नहीं मिलेगा। ( ऐसे खामीको पाकर भी मैंने अपना काम नहीं बनाया तो फिर मेरे समान मूर्ख और कौन होगा ? ) ॥ ४॥ इसी बातको हृदयमें जानकर हे रघुनाथजी! मैं सब छोड़-छाड़कर तुम्हारे भरोसे आ पड़ा हूँ। तुलसीदासका यह विपत्तिरूपी जाल तुम्हारे ही काटे कटेगा!॥५॥
पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९६
दिखावट