पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३०३
विनय-पत्रिका
 

पाया । तू मुझे महामोहरूपी मृगतृष्णाकी नदीमें बार-बार डुबाता ही रहा ॥ ३ ॥ अरे दुष्ट! सुन, तू चाहे करोडो प्रकारके छल-बल कर पर भगवान्का परमभक्त तेरे वशमें नहीं हो सकता, तू अपनी ( विषयोंकी ) सेनासमेत वहीं जाकर डेरा डाल, जिस हृदयमे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण* भगवान्का वास न हो ( जिस भक्तके हृदयमें भगवान्का वास है वहाँ तेरा क्या काम ?)॥ ४ ॥ जो तेरा भेद न जानता हो, उसीके साथ अपनी कपटी चाल चल । वही रस्सीरूपी सॉपसे डरकर मरेगा, जो उसके भेदको न जानता होगा ॥ ५॥ अरे शठ! अपने हितकी बात सुन, जो तू कुटुम्बसमेत अपनी खैर चाहता है तो हठन कर । तुलसीदासके प्रभु श्रीरघुनाथ- जीके सेवकोंको छोड़कर तू वहीं भाग जा जहाँ अहंकार और काम रहते हों (जहाँ राम रहते हैं वहाँ अहंकार और काम नहीं; और जहाँ ये नहीं, वहाँ मायाका संसार कैसे रह सकता है ? ) ॥६॥' ' राग गौरी • . [१४९] ' राम कहत चलु, राम कहत चल, राम कहत चलु भाई रे। नाहि तो भव-बेगारि मह परिहै छूटत अति कठिनाई रे॥ १ ॥ बाँस पुरानसांज सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे। हहि दिहल करिकुटिल करमचदमिदमोल विनुडोलारे॥ २॥

  • इससे सिद्ध है कि गोसाईजी श्रीराम और श्रीकृष्णमैं कोई भेद

नहीं मानते थे जो वास्तविक सिद्धान्त है। - करमचन्द बुरे प्रारब्धके लिये व्यगोक्ति है। बड़ी-बड़ी बातें बनाता है, अपने करमर्चन्दकी करतूत तो देख',लोग ऐसा, कहा करते हैं 1.1.