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पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/३५

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विनय-पत्रिका हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर, मध्य धारा विशद, विश्व अभिरामिनी । नील-पर्यक-कृत-शयन सक्श जनु, सहस सीसावली स्रोत सुर-स्वामिनी ॥४॥ अमित-महिमा, अमितरूप, भूपावली- मुकुट-मनिवंद्य त्रैलोक पथगामिनी। देहि रघुवीर-पद-प्रीति निर्मर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी ॥५॥ भावार्थ-हे गङ्गाजी ! तुम्हारी जय हो, जय हो । तुम सम्पूर्ण संसारको पवित्र करनेवाली हो । विष्णुभगवान्के चरण-कमलके मकरन्दरसके समान सुन्दर जल धारण करनेवाली हो । दुःखोंको भस्म करनेवाली और पापोंके समूहका नाश करनेवाली हो ॥१॥ भगवान्की चरणरजसे मिश्रित तुम्हारा निर्मल सुन्दर जल ब्रह्माजीके कमण्डलुमें भरा रहता है, तुम शिवजीके मस्तकपर रहनेवाली हो । हे जाह्नवी ! तुम्हें धन्य है । तुमने सगरके साठ हजार पुत्रोंका उद्धार कर दिया । तुम पर्वतोंकी कन्दराओंको विदीर्ण करनेवाली हो । तुम्हारे अनेक नाम हैं ॥ २ ॥ जो यक्ष, गन्धर्व, मुनि, किन्नर, नाग, दैत्य और मनुष्य अपनी स्त्रियोंसहित तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं वे अनन्त पुण्योंके भागी हो जाते हैं। तुम स्वर्गकी निसेनी हो और ज्ञान विज्ञान प्रदान करनेवाली हो । मोह, मद और कामरूपी कमलों के नाशके लिये तुम शिशिर ऋतुकी रात्रि हो ॥३॥ तुम्हारे दोनों सुन्दर तोरोंपर हरे और घने बेंतके वृक्ष लगे हैं और उनके बीचमे ससारको सुख पहुँचानेवाली तुम्हारी विशाल निर्मल धारा बह रही