पृष्ठ:विनय पत्रिका.djvu/४२०

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४२५ विनय-पत्रिका अपना दुःख और किसे सुनाने जाय ? क्योंकि मेरे तो मालिक, गुरु, माता, पिता आदि सब कुछ केवल आप ही हैं ॥ ३ ॥ [ २७१] जैसो हो तैसो राम रावरोजन, जनि परिहरिये।। कृपासिंधु, कोसलधनी ! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी दरिये ॥१॥ हो तो बिगरायल और को, बिगरोन विगरिये। तुम सुधारि आये सदा सवकी सवही विधि, अब मेरियो सुधरिये ॥२॥ जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये। कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील, सरल चित, तेहि सुभाड अनुसरिये ॥३॥ __ अपराधी तर आपनो, तुलसी न विसरिये। टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु विलोचन पीर होत हित करिये ॥४॥ भावार्थ-हे श्रीरामजी! मै ( भला-बुरा) कैसा भी हूँ, पर हूँ ' तो आपका दास ही, इससे मुझे त्यागिये नही । हे कोसलनाथ ! आप कृपाके समुद्र और शरणागतोंका पालन करनेवाले हैं। अपनी इस शरणागतवत्सलताकी रीतिपर ही चलिये ॥ १ ॥ मैं तो (काम, क्रोध आदि ) दूसरोंके द्वारा पहले ही बिगाडा हुआ हूँ, इस बिगड़े हुएको (शरणमे न रखकर और ) न बिगाड़िये। आप तो सदा ही सबकी सब तरहसे सुधारते आये हैं अब मेरी भी सुधार दीजिये ॥२॥ मुझे अपनानेमें जगत् आपकी हँसी करेगा, आप इस डरसे क्यों डर रहे हैं । (आपका तो सदासे यह बाना ही है।) आपने अपने जिस