पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१२७

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! महावग्ग [ १९१३ (८) यशको प्रव्रज्या उस समय य श नामक कुलपुत्र, वा रा ण सी के श्रेष्ठीका १ सुकुमार लड़का था। उसके तीन प्रासाद थे-एक हेमन्तका, एक ग्रीष्मका, एक वर्पाका । वह वाके चारों महीने वर्पा-कालिक प्रासादमें, अ-पुरुषों (=स्त्रियों) के वाद्योंसे सेवित हो, प्रासादसे नीचे न उतरता था। (एक दिन).... ....यन कुल- पुत्रकी....निद्रा खुली। सारी रात वहाँ तेलका दीप जलता था। तब यश कुलपुत्रने....अपने परिजनको देखा-किसीकी बगल में वीणा है, किसीके गलेमें मृदंग है....। किसीको फैले-केश, किसीको लार-गिराते, किसीको बर्राते, साक्षात् श्मशानसा देखकर, (उसे) घृणा उत्पन्न हुई, चित्तमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। यश कुल-पुत्रने उदान कहा--"हा ! संतप्त!! हा! पीळित !!" यश कुलपुत्र सुनहला जूता पहिन, घरके फाटककी ओर गया....। फिर....नगर द्वारकी ओर....! तव यश कुल-पुत्र वहाँ गया, जहाँ ऋ पि प त न मृग दा व था। उस समय भगवान् रातके भिन्सार- को उठकर, खुले (स्थान) में टहल रहे थे। भगवान्ने दूरसे यश कुल-पुत्रको आते देखा । देखकर टह- लनेकी जगहसे उतरकर, बिछे आसनपर बैठ गये। तब यश कुलपुत्रने भगवान्के समीप (पहुँच), उदान कहा--"हा! सन्तप्त !! हा! पीळित !!"। भगवान्ने यश कुलपुत्रसे कहा-“यश! यह है अ-संतप्त। यश ! यह है अ-पीळित । यश ! आ बैठ, तुझे धर्म बताता हूँ।" तव यशकुल-पुत्र "यह अ-सन्तप्त है, यह अ-पीळित है"- (सुन) आह्लादित, प्रसन्न हो सुनहले जूतेको उतार, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। पास जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक और वैठ गया। एक ओर बैठे यश कुलपुत्रको, भगवान्ने आनुपूर्वी कथा, जैसे-दान-कथा, शीलकथा, स्वर्ग- कथा, कामवासनाओंका दुष्परिणाम अपकार दोष, निष्कामताका माहात्म्य प्रकाशित किया। जब भग- वान्ने यशको भव्य-चित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादित-चित्त; आह्लादित-चित्त और प्रसन्नचित्त देखा, तब जो वुद्धोंकी उठानेवाली देशना (=उपदेश) है-दुःख, समुदय (=दुःखका कारण), निरोध (=दुःखका नाश), और मार्ग (=दुःख-नाशका उपाय)-उसे प्रकाशित किया। जैसे कालिमा-रहित शुद्ध-वस्त्र अच्छी तरह रंग पकळता है, वैसेही यश कुल-पुत्रको उसी आसनपर “जो कुछ उत्पन्न होनेवाला धर्म है, वह नाशमान् है" '-यह वि-रज=निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ। (९) श्रेष्ठी गृहपतिकी दीक्षा यश कुल-पुत्रकी माता प्रासादपर चढ़, यशकुल-पुत्रको न देख, जहाँ श्रेष्ठी गृह-पति था वहाँ गई, (और)....वोली-"गृहपति ! तुम्हारा पुत्र यश दिखाई नहीं देता है" ? तव श्रेष्ठी गृह-पति चारों ओर सवार छोळ, स्वयं जिधर ऋपि-पतन मृग-दाव था, उधर गया। श्रेष्ठी गृहपति सुनहले जूतोंका चिन्ह देख, उसीके पीछे पीछे चला। भगवान्ने श्रेष्ठी गृहपतिको दूरने आते देखा। तब भगवान्को (ऐसा विचार) हुआ-"क्यों न मैं ऐसा योगवल करूँ, जिससे श्रेष्ठी गृह- पति यहाँ बैठे यश कुल-पुत्रको न देख सके।" तव भगवान्ने वैसाही योग-बल किया। श्रेष्ठी गृहपतिने जहाँ भगवान् थे, वहाँ....जाकर भगवान्से कहा-“भन्ते ! क्या भगवान्ने यश कुल-पुत्रको देखा है ?" “गृहपति ! बैठ। यहीं बैठा तू यहाँ बैठे यश कुलपुत्रको देखेगा।" श्रेष्ठी गृहपति-"यहीं बैठा मैं यहाँ वैठे यश कुल-पुत्रको देलूँगा" (सुन) आह्लादित= १ श्रेष्ठी नगरका एक अवैतनिक पदाधिकारी होता था, जो कि धनिक व्यापारियोंमेसे