पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/१३०

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१९१९ ] श्रेष्ठी गृहपतिकी दीक्षा [ ८५ प्रसन्न हो, भगवान्को अभिवादनकर, एक ओर बैठ गया।....भगवान्ने आनुपूर्वी ' कथा, जैसे---'दान- कथा०' प्रकाशित की। श्रेष्ठी गृहपतिको उसी आसनपर० धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ । भगवान्के धर्ममें स्वतन्त्र हो, वह भगवान्से बोला--"आश्चर्य ! भन्ते !! आश्चर्य ! भन्ते ! ! जैसे औंधेको सीधा कर दे, ढकेको उघाळ दे, भूलेको रास्ता बतला दे, अंधकारमें तेलका प्रदीप रख दे, जिसमें कि आँखवाले रूप देखें; ऐसेही भगवान्ने अनेक पर्यायसे धर्मको प्रकाशित किया । यह मैं भग- वान्की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघकी भी। आजसे मुझे भगवान् अंजलिबद्ध शरणागत उपा- सक ग्रहण करें।" वह (गृहपति) ही संसारमें तीन-वचनोंवाला प्रथम उपासक हुआ । जिस समय (उसके) पिताको धर्मोपदेश किया जा रहा था, उस समय (अपने) देखे और जानेके अनुसार गंभीर चिन्तन करते, यश कुल-पुत्रका चित्त अलिप्त हो, आस्रवों (=दोपों: मलों) से मुक्त होगया। तब भगवान्के (मनमें) हुआ—“पिताको धर्म-उपदेश किये जाते समय (अपने देखे और जानेके अनुसार प्रत्यवेक्षण करते, यश कुल-पुत्रका चित्त अलिप्त हो, आस्रवोंसे मुक्त हो गया। (अव) यश कुल-पुत्र पहिली-गृहस्थ अवस्थाकी भाँति हीन (-स्थिति) में रह, गृहस्थ सुख भोगनेके योग्य नहीं है, क्यों न मैं योग-बलके प्रभावको हटा लूं।” तव भगवान्ने ऋद्धिके प्रभावको हटा लिया । श्रेष्ठी गृहपतिने यश कुल-पुत्रको वैठे देखा । देखकर यश कुलपुत्रसे बोला- "तात ! यश! तेरी माँ रोतीपीटती और शोकमें पळी है, माताको जीवन दान दे।" यग कुलपुत्रने भगवान्की ओर आँख फेरी। भगवान्ने श्रेष्ठी गृहपतिसे कहा- "सो गृहपति ! क्या समझता है, जैसे तुमने अपूर्ण ज्ञानसे, अपूर्ण साक्षात्कारसे धर्मको देखा, वैसेही यशने भी (देखा) ? देखे और जानेके अनुसार प्रत्यवेक्षण करके, उसका चित्त अलिप्त हो, आन्त्रवोंसे मुक्त हो गया है। अव क्या वह पहिली गृहस्थ-अवस्थाकी भाँति हीन (-स्थिति) में रहकर, गृहस्थ सुख भोगनेके योग्य है ?" "नहीं, भन्ते !" "गृहपति ! (पहिले) अपूर्ण ज्ञानसे, और अपूर्ण दर्शनसे यशने भी धर्मको देखा, जैसे तूने । फिर देखे और जानेके अनुसार प्रत्यवेक्षण करके, (उसका) चित्त अलिप्त हो आस्रवोंसे मुक्त हो गया। गृहपति ! अव यश कुल-पुत्र पहिलेकी गृहस्थ-अवस्थाकी भाँति हीन (-स्थिति) में रह गृहस्थ-सुख भोगने योग्य नहीं है।" “लाभ है भन्ते ! य श कुल-पुत्रको; सुलाभ किया भन्ते ! यश कुल-पुत्रने; जो कि यश कुलपुत्रका चित्त अलिप्त हो आस्रवोंसे मुक्त हो गया। भन्ते ! भगवान् यशको अनुगामी भिक्षु वना, मेरा आजका भोजन स्वीकार कीजिये।" भगवान्ने मौनने स्वीकृति प्रकट की। श्रेष्ठी गृहपति भगवान्की स्वीकृति जान, आसनसे उट, भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणा- कर, चला गया। फिर यश कुल-पुत्रने श्रेष्ठी गृहपतिके चले जानेके थोळीही देर बाद भगवान्से कहा-- "भन्ते ! भगवान् मुझे प्रव्रज्या दें, उपसंपदा दें।" भगवान्ने कहा-"भिक्षु ! आओ धर्म सु-व्याख्यात है अच्छी तरह दुःखके क्षयके लिये ब्रह्म- चर्यका पालन करो।" यही इस आयुप्मान्की उपसम्पदा हुई। उस समय लोकमें सात अर्हत् यश-प्रवज्या समाप्त । 'देखो पृष्ठ ८४ । बुद्ध, धर्म और संघ तीनोंकी शरणागत होनेका वचन।