--- ४९३] चार अधिकरण [ ४०५ यह ० और भी० फूटका कारण बन जाये ; तो भिक्षुओ ! अनुमति देता हूँ, ऐसे अधिक र ण को ति ण- व त्या र क (तृणसे ढांकने जैसा) से शान्त करनेकी। 95 "और भिक्षुओ! इस प्रकार (तिणवत्यारकसे) शान्त करना चाहिये--सवको एक जगह जमा होना चाहिये, जमा हो चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे-- " 'भन्ते ! संघ मेरी सुने, विवाद करते हमने वहुतसे श्रमणविरोधी० अपराध किये हैं,० एक दूसरेके साथ प्रतिकार करायें, तो शायद यह और भी० फूटका कारण बन जाये । यदि संघको पसंद हो, तो थु ल्ल च्च य और गृहस्थसे संबद्ध (अपराधों) को छोळ, संघ इस अधिकरणको तिणवत्थारकसे गान्त करे।' "(फिर) एक पक्षवालोंमेंसे चतुर समर्थ भिक्षु अपने संघको सूचित करे--'भन्ते! संघ मेरी मुने. हमने । यदि संघको पसंदहो, जो (आप) आयुष्मानोंके अपराध (=आपत्ति) हैं, और जो मेरे अपराध है, थुल्लच्चय और गृहस्थी संबढको छोळ, आयुष्मानोंके लिये और अपने लिये भी संघके वीच ति ण व न्धा र क ने उनको दे ग ना (=confession) करूँ।' "फिर दूसरे पक्षवालोंमेने चनुर समर्थ भिक्षु अपने संघको सूचित करे- " भन्ते ! संघ मेरी सुने, संघके बीच तिणवत्थारकसे उनकी दे श ना करूं।' क. न प्ति--"एक (पहिले) पक्षवालोंमेंसे चतुर समर्थ भिक्षु ((सारे संघको सूचित करे-- "भन्ते ! संघ मेरी सुने, विवाद करते हमने वहुतमे श्रमण-विरोधी० अपराध किये हैं । यदि संघको पसंद हो, तो थुल्लच्चय और गृहन्थने संबद्ध (अपराधों) को छोड़, जो इन आयुप्मानोंके अप- गध है, और जो मेरे अपराध है, इन आयुप्मानोंके लिये और अपने लिये भी संघके बीच उनकी ति ण- वस्था र व ने देश ना करूं--यह सूचना है। "द. अ न था व ण--(१) 'भन्ते ! संघ मेरी सुने, ० । थुल्लच्चय और गृहस्थसे संबद्ध अपगधोंको छोड़, जो इन आयुप्मानोंवो अपराध है और जो मेरे अपराध हैं, संघके बीच ति ण व त्या- र व से उनकी देशना कर रहा हूँ। जिस आयुप्मान्को, हमारा० इन आपत्तियोंकी संघके बीच तिणव- त्थाग्य देशना पसंद है, वह चुप रहे जिसको पसंद न हो वह बोले। “(२) 'दूसरी वार भी० । "() 'तीसरी बार भी। 'ग. धारणा--'हमने इन आपत्तियोंकी संघके वीच तिणवत्थारक देगना कर दी। संवको पसंद है. इसलिये चुप है--ना में इने नमझता हूँ।' "नव दूसरे पक्षवाले भिक्षुओंमेंने एक चतुर समर्थ भिक्षु (सारे) मंघको सूचित करे- "क. जनि--भन्ते ! संघ मेरी मुने--०१ 'ग. धारणा-'हमने इन आपनियोंकी संघके बीच तिणवत्यारक देगना कर दी। संघको पनंद है. इसलिये चप है-ऐना में इने समझता है।' "भिक्षसोन प्रकार बह भिनु, थुल्लच्चय और गृहन्यने मंबद्ध आपनियोंको छोड़, उन आनियोन एट है।" कि-चार अधिकरणा. उनके मून. भेद. नाम-करण और शमन उसमानी नियमिपि नाथ विवाद अन्ले थे, भिणियां भी निभोक नाथ विवाद 'पहिले पनि ही वहां भी सूदना (अप्ति) और अनधादा नमाना चाहिए।
पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/४६६
दिखावट