पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५०६

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! सींका, दंड ५७३।४ ] [ ४३९ भिक्षुओंने उस उपासकके हैरान होने ० को सुना। तब उन भिक्षुओंने भगवान्से यह बात कही।- "सचमुच ०/-- "भिक्षुओ! छत्ता न धारण करना चाहिये, ० दुक्कट ० ।" 190 उस समय भिक्षु रोगी था, छत्तेके बिना उसे अच्छा न होता था ।०-- अनुमति देता हूँ रोगीको छत्तेकी।” I9I उस समय भिक्षु-भगवान्ने रोगीको ही छत्ता धारण करनेके लिये यही विधान किया है, अरोगीको नहीं-(सोच) आराममें और आरामके वासमें (भी) छत्ता धारण करने में हिचकिचाते थे।०- अनुमति देता हूँ अरोगीको आराममें और आरामके पास छत्ता धारण करनेकी।" 192 (४) छोंका, दंड उस समय एक भिक्षु सींके (=सिक्का) में पात्रको डाल डंडेसे लटका अपराण में एक गाँवके हारसे जा रहा था। लोग यह आर्यो! चोर है, तलवार इसकी दीख रही है---कह दौळे, (पीछे) पहिचानकर (उन्होंने) छोळ दिया। तव भिक्षुने आराममें जा भिक्षुओंसे यह बात कही।- "क्या आवुस! तूने सींका-डंडा धारण किया था ?" "हाँ, आवुसो !' अल्पेच्छ० हैरान होते थे ।० सचमुच०१०-- "भिक्षुओ ! सीका-डंडा न धारण करना चाहिये, दुक्कट ०।" 193 उस समय एक भिक्षु वीमार था, डंडे बिना चल न सकता था।- "भिक्षुओ! रोगी भिक्षुको डंड रखनेकी संमति देनेकी अनुमति देता हूँ। 194 "और भिक्षुओ ! इस प्रकार देना चाहिये- -(१) “वह रोगी भिक्षु संघके पास जा'. याचना करे-'भन्ते ! मैं रोगी हूँ विना डंडेके चल नहीं सकता। सो मैं भन्ते ! संघसे डंडेकी सम्म ति माँगता हूँ। “तव चतुर समर्थ भिक्षु संघको सूचित करे-- "क. ज्ञप्ति। "ख. अनुश्रावण "ग. धा र णा-'संघने इस नामवाले भिक्षुको डंडा (रखने)की सम्मति दे दी। संघको पसंद है, इसलिये चुप है-ऐसा मैं इसे समझता हूँ।" उस समय एक भिक्षु रोगी था, विना सीकेके पात्र नहीं ले चल सकता था ।0-- '०अनुमति देता हूँ, रोगी भिक्षुको सीकेके लिये सम्म ति देनेकी ।" 195 "और भिक्षुओ! इस प्रकार देनी चाहिये ०२ ।" उस समय एक भिक्ष बीमार था, विना डंडेके चल नहीं सकता था, विना सीकेके पात्र नहीं ले चल सकता था।०- 'अनुमति देता हूँ रोगी भिक्षको सींका-डंडाके लिये सम्म ति देनेकी।" 196 "और भिक्षुओ! इस प्रकार देनी चाहिये ० २ ।" --याच ना-- 14 'ऊपर दण्डकी सम्मतिकी भाँति ही। ऊपरको तरह।