पृष्ठ:विनय पिटक.djvu/५८०

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- ९०११३ ] वुद्धका फिर उपोसथमें नहीं शामिल होना [ ५११ धर्म-विनयमें क्रमश: शिक्षा, क्रमशः क्रिया, क्रमश: मार्ग है, एक दम (शुरूही) से आ ज्ञा का प्रतिवेध नहीं, यह भिक्षओ! इस धर्म-विनयमें प्रथम आश्चर्य=अद्भुत धर्म है, जिसे देख देखकर भिक्षु इस धर्म- विनयमें अभिरमण करते हैं। (२) जैसे भिक्षुओ ! महासमुद्र स्थिर-धर्म है=किनारेको नहीं छोळता; ऐसे ही भिक्षुओ! जो मैंने श्रावकों (=शिष्यों) के लिये शिक्षा-पद (=आचार-नियम) प्रजापित (=विहित) किये , उन्हें मेरे श्रावक प्राणके लिये भी अति-क्रमण नहीं करते । जो कि०। (2) जैसे भिक्षुओ! महासमुद्र मरे मर्देके साथ नहीं वास करता । महासमुद्र में जो मरा मुर्दा होता है उसे शीघ्र ही तीरपर वहाता है, या स्थलपर फेंक देता है। ऐसे ही भिक्षुओ ! जो व्यक्ति (=पुद्गल) पापी, दुःशील, अ-शुचि, मलिन-आचारी, छिपे-कर्मान्त (= ० पेशे) वाला, अश्रमण होता श्रमण होनेका दावेदार, अब्रह्मचारी होते ब्रह्मचारी होनेका दावेदार, भीतर सव, (पीळा) भरा, कलुषरूप होता है, उसके साथ संघ नहीं वास करता। शीघ्र ही एकत्रित हो उसे निकालता (उत्क्षेपण करता) है । चाहे वह भिक्षु-संघके वीचमें बैठा हो, तो भी वह संघसे दूर है, और संघ उससे (दूर है) । जो कि ० । (४) जैसे भिक्षुओ ! महानदियाँ ० महासमुद्रको प्राप्त हो अपने पहिले नाम-गोत्रको छोळ देती हैं, महासमुद्रके ही (नामसे) प्रसिद्ध होती हैं। ऐसे ही भिक्षुओ! क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य (और) शूद्र-यह चारों वर्ण तथागत जतलाये धर्म-विनयमें घरसे वेघर प्रवजित (=संन्यासी) हो पहिलेके नाम-गोत्रको छोळते हैं, शा क्य पुत्री य श्रमणके ही (नामसे) प्रसिद्ध होते हैं। जो कि ०। (५) जैसे भिक्षुओ! जो भी संसारमें वहनेवाली (पानीकी धारें) समुद्रमें जाती हैं, और जो अन्तरिक्ष (=आकाश) से (वर्षाकी) धारायें गिरती हैं, उससे समुद्रकी ऊनता या पूर्णता नहीं दीख पळती; ऐसे ही भिक्षुओ! चाहे बहुतसे भिक्षु अनुपादिशेष (=उपादि जिसमें शेष नहीं रहती) निर्वाण धातु (=निर्वाणपद) को प्राप्त हों, उससे निर्वाण-धातुकी ऊनता या पूर्णता नहीं दीख पळती। जो कि० । (६) जैसे भिक्षुओ ! महासमुद्र एक-रस है. लवण (ही उसका) एक रस है; ऐसे ही भिक्षुओ ! यह धर्म-विनय एक रस है विमुक्ति (=मुक्ति ही इसका एक) रस है; जो कि ०। (७) जैसे भिक्षुओ ! महासमुद्र बहुतसे रत्नोंवाला है, ०; ऐसे ही भिक्षुओ! यह धर्म-विनय बहुतसे रत्नोंवाला है, अनेक रत्नोंवाला है। वहाँपर रत्न है जैसे कि '--चार [१-४] स्मृति - प्रस्था न, चार [५-८] सम्य क प्रधान, चार [९-१२] ऋद्धि पाद, पाँच [१३-१७] इन्द्रि य, पाँच [१८-२२] व ल, सात [२३-२९] बो ध्यं ग, [३०-३७] आ र्य अप्टां गि क मार्ग । जो कि ० । (८) जैसे भिक्षुओ! महासमुद्रमें महान् प्राणियोंका निवास स्थान है० ; से ही भिक्षुओ! यह धर्म-विनय महान् प्राणियोंका निवास है। वहाँ यह प्राणी हैं जैसे कि--स्रो त - आ पन-(निर्वाणके) स्रोतकी प्राप्ति (रूपी) फलके साक्षात्कार करनेके मार्गको प्राप्त; स क दा - गा मी=एक ही बार (इस संसारमें) आकर (निर्वाण प्राप्त करना रूपी) फलके साक्षात्कार करनेके मार्गको प्राप्त; अना गा मी (इस संसारमें) न आकर (दूसरे लोक हीमें निर्वाण प्राप्त करना रूपी) फलके साक्षात्कार करनेके मार्ग प्राप्त; अर्हत्--अर्हत्त्व (=मुक्तपन) फलके साक्षात्कार करनेके मार्गको प्राप्त । जो कि ०।" तव भगवान्ने इस अर्थका ग्यालकर उसी समय यह उ दा न कहा- "हांकनेकी बुद्धि रखनेवाला (फिर) दोप करता है, खुले (दिल) वाला नहीं दोप करता। इसलिये हॅकेको खोल दे, जिसमें कि अधिक दोप न करे ॥(१)॥" (३) बुद्धका फिर उपोसथमें नहीं शामिल होना तब भगवान्ने भिक्षुओंको संबोधित किया-- 'यही सैतीस बोधिपक्षीय धर्म कहे जाते हैं।