पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/१५१

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ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहते हैं। ईश्वर पानी के समान है जो मन-रूपी पात्रों में भर रहा है और पात्र पात्र में उसके अलग अलग तदाकार रूप भासमान हो रहे हैं। पर है वह एक ही। वह सब रूप में ईश्वर ही है। यही विश्वव्यापकता का भाव है जो हमारी समझ में आ सकता है।

यहाँ तक तो सिद्धांत रूप में यह ठीक है। पर क्या कोई ऐसी भी रीति है कि धर्मों की यह एकता कर्म-रूप में परिणत की जा सके? हमें जान पड़ता है कि यह ज्ञान कि धर्म की सारी भिन्न भिन्न बातें सत्य हैं, बड़ा पुराना है। भारतवर्ष, सिकं- दरिया, युरोप, चीन, जापान, तिब्बत और अंत को अमेरिका में भी इसके लिये सैंकड़ों बार प्रयत्न किया गया है कि सारे धर्मों और संप्रदायों में प्रेम उत्पन्न हो, सब में एकता का संचार हो जाय। पर सब में विफलता हुई। कारण यही था कि उचित प्रणाली का अवलंबन नहीं किया गया। बहुतों ने इस बात को स्वीकार किया कि संसार के सारे धर्म ठीक हैं; पर उन सब धर्मों को एक सूत्र में बाँधने की कोई ऐसी व्यावहारिक रीति नहीं बतलाई गई जिससे उस ऐक्य में वे अपनी विभिन्नता को स्थापित रखते हुए साथ साथ चलें। वही रीति उपयोगी हो सकती है जिससे धर्म में किसी मनुष्य के व्यक्तित्व को धक्का न पहुँचे, उसका नाश न हो और सबको पारस्परिक एकता का ज्ञान हो जाय। पर इस बात को कहते हुए भी कि हम सब धमों के सारे विचारों को जिनका प्रचार है, लेंगे, जो जो उपाय

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