पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[ २६५ ]

को ईसाई आध्यात्मिक शरीर कहते हैं। इसी शरीर को मुक्ति वा दंड वा स्वर्गादि मिलते हैं। इसी का जन्मादि होता है; क्योंकि हम देखते हैं कि आदि ही से पुरुष का गमनागमन होना असंभव है। गति गमनागमन को कहते हैं; और जो आता जाता है, वह सर्वगत नहीं होता। कपिल के दर्शन से यह जाना जाता है कि आत्मा अनंत है और वह प्रकृति का विकार नहीं है। वह प्रकृति से परे है, पर वह देखने में प्रकृति-बद्ध जान पड़ता है। उसके चारों ओर प्रकृति है और वह उसे अपने आपको समझता है। वह समझता है कि मैं लिंग शरीर हूँ। मैं स्थूल द्रव्य, स्थूल शरीर हूँ। यही कारण है कि उसे सुख दुःख होते हैं; पर वे वास्तव में उसे नहीं होते वे लिंग शरीर को होते हैं जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं।

समाधि की दशा को योगी लोग सबसे उच्च दशा कहते हैं। उस दशा में न तो द्रष्टा का भाव है न दृक् का; अतः उस अवस्था में आप पुरुष के पास पहुँच जाते हैं। आत्मा को न तो सुख है न दुःख। वह सब का द्रष्टा, सब कर्मों का नित्य साक्षी है, पर किसी कर्म के फल का भोक्ता नहीं है। जैसे सूर्य्य सब चक्षुओं की दृष्टि का कारण है, पर आँखों के दोष से उसे कोई संपर्क नहीं है; जैसे स्फटिक मणि में नीले पीले फूलों की आभा पड़ती है, पर वह न तो नीला होता है न पीला; वैसे आत्मा न द्रष्टा है न दृग्, न भोक्ता है न भोग्य; दोनों से परे है। इस आत्मा की अवस्था को प्रकट करने का सुगम