स्वरूप बिना प्रतिबिंब के दिखाई नहीं पड़ सकता। अतः यह
सारा विश्व ब्रह्म ही है जो अपने को जानने का प्रयत्न कर रहा
है। यह प्रतिबिंब पहले प्रोटोल्पाज्म वा ऐकेंद्रिय जंतु के ऊपर
प्रतिबिंबित होता है; फिर वनस्पति पर, फिर कीट-पतंग, पशु-
पक्षी आदि प्राणियों पर; और जैसा जैसा आदर्श मिलता है,
वैसा वैसा प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है; और अंत को उसका सर्वो-
त्कृष्ट आदर्श प्राप्त पुरुष होता है। जैसे अपना रूप देखनेवाला
मनुष्य पहले मैले पानी में अपना प्रतिबिंब देखता है तो उसे
केवल आकार देख पड़ता है। फिर वह शुद्ध निर्मल जलाशय के
पास जाता है। वहाँ उससे अधिक स्पष्ट प्रतिबिंब दिखाई पड़ता
है। फिर वह चमकीले धातु की चद्दर पर देखता है। वहाँ और
साफ देख पड़ता है; और अंत को वह दर्पण हाथ में लेता है
और उसमें अपने यथार्थ रूप को देखता है; तब उसे अपने रूप
का बोध होता है। अतः प्राप्तपुरुष ब्रह्म का सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिंब
है जो स्वयं द्रष्टा और स्वयं दृग् है। अब आपकी समझ में आ
गया कि क्यों मनुष्य स्वभाव से ही सबकी उपासना करता है।
प्राप्तपुरुषों की उपासना स्वभाव से ही सब देशों में ईश्वरवत्
क्यों होती है? आप जैसा चाहें, कहें; वे उपासना करने योग्य
हैं, उनकी उपासना होगी। यही कारण है कि मनुष्य अवतारों
की उपासना करते हैं। ईसा की उपासना होती है, भगवान्
बुद्धदेव की पूजा होती है। वे लोग ब्रह्म की पूर्ण अभिव्यक्तियाँ
हैं। वे ईश्वर की उन सब कल्पनाओं से जो आप और हम कर
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