लिये नहीं होता। यहाँ पर भी हमें परिणामवाद वा हेतुवाद बड़े ही सुंदर रूप में दिखाई पड़ता है और कार्य्य-कारण में अनुरूपता देख पड़ती है। जैसा कारण है, वैसा ही कार्य्य होगा। यदि कारण परिमित है तो उसका कार्य्य भी परिमित ही होगा। शाश्वत कारण से ही शाश्वत कार्य्य होगा। पर स्मरण रहे कि यह सारे कारण जैसे शुभ कर्म करना इत्यादि, परिमित कारण हैं और इनसे शाश्वत कार्य्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
अब हम प्रश्न को दूसरी ओर पहुँचते हैं। जैसे कोई शाश्वत वर्ग नहीं हो सकता, उसी आधार पर कोई नित्य का नरक भी नहीं हो सकता। मान लीजिए, मैं बड़ा ही दुष्ट मनुष्य हूँ और मैंने सारे जीवन में पाप किया। फिर भी यहाँ का मेरा सारा जीनन शाश्वत जीवन के सामने कुछ नहीं है। अब यदि कहीं शाश्वत नरक है तो इसका अभिप्राय यह है कि परिमित कारण का अपरिमित कार्य्य है; और यह हो नहीं सकता है। यदि मैं जन्म भर शुभ कर्म करता रहूँ तो भी मुझे सदा के लिये खर्ग नहीं मिल सकता। ऐसा न मानना हमारी भूल है। पर एक तीसरा मार्ग है जो उन लोगों से संबंध रखता है जिन्होंने सत्य का साक्षात् किया है, जिन्होंने उसे जान लिया है। यही एक मार्ग माया से छूटने का है; अर्थात् सत्य का साक्षात् करना; और उपनिषद् बतलाती है कि सत्य के साक्षात् का क्या अभिप्राय है।