वाक्छल जो उपस्थित किया जाता है, केवल वाक्छल है। उदाहरण के लिये मान लीजिए कि एक मनुष्य एक वाक्य- श्रृंखला को लेता है; जैसे मैं करता हूँ, जाता हूँ, स्वप्न देखता हूँ, गति करता हूँ, सोता हूँ, इत्यादि, और वह यह प्रतिपादन करता है कि करना, जाना, स्वप्न देखना आदि क्रियाएँ विकारी होतो गई हैं; पर मैं सतत ध्रुव था और रहा हूँ। इसी आधार पर वे यह परिणाम निकालते हैं कि यह ‘मैं’ ऐसा पदार्थ है जो ध्रुव है और असंगत है; पर विकार शरीर के संबंध से हुए हैं। यह विचार यद्यपि बड़ा ही संतोषप्रद और स्पष्ट है, तथापि केवल शब्दों के आडंबर पर ही आश्रित है। यद्यपि ‘मैं’ और “करना,” “जाना” आदि अलग अलग भले ही माने जायँ, पर कोई उन्हें अपने मन से अलग नहीं कर सकता।
जब मैं खाता हूँ, तब मैं अपने को खाता हुआ जानता हूँ― मैं खाता हुआ माना जाता हूँ। जब मैं दौड़ता हूँ, तब मैं और दौड़ना दोनों पृथक् नहीं हैं। अतः अपने जानने के आधार पर जो प्रमाण है, वह दृढ़ प्रमाण नहीं जान पड़ता। दूसरी युक्ति प्रत्यभिज्ञा वा स्मरण के आधार पर है; पर वह भी निर्बल ही है। यदि मेरी सत्ता का ज्ञान केवल प्रत्यभिज्ञा पर ही अवलं- बित है, तब हम बहुत बातों को भूल गए होंगे और वे सब जाती ही रहीं। मैं यह भी जानता हूँ कि लोगों को विशेष अवस्था में अपनी बीती बातों का भी स्मरण नहीं रह जाता। कभी कभी पागलपन की अवस्था में मनुष्य अपने को काँच का