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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली.djvu/९८

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ही रहती है, केवल कुछ और अच्छी होती है। वहाँ जीव सुख में फँसा रहता है। उसे अपने स्वरूप का कुछ भी ध्यान नहीं रहता। फिर भी कुछ और भी लोक हैं जहाँ सारे सुख होते हुए भी उन्नति करने की संभावना है। कुछ द्वैतवादी जीवात्मा की परमावधि ब्रह्मलोक तक मानते हैं। वहाँ वह सदा ईश्वर के साथ विचरता है। वहाँ उसे उत्तम शरीर मिलता है। न वहाँ रोग है, न जरामरण और न क्लेश। उसकी सारी इच्छाएँ पूरी होती रहती हैं। वहाँ के कुछ लोग समय समय पर पृथ्वी पर जन्म लेकर लोगों को ईश्वर के ज्ञान का उपदेश करते हैं। संसार के बड़े बड़े आचार्य ऐसे ही लोग थे। वे मुक्त थे और ब्रह्मलोक में रहते थे। पर उन्हें संसारी लोगों का दुःख देखकर इतती करुणा आई कि उन लोगों ने इस लोक में आकर अव- तार लिया और लोगों को ईश्वर के मार्ग की शिक्षा दी।

इसमें संदेह नहीं कि अद्वैतवाद का सिद्धांत है कि यह परमावधि का श्रादर्श नहीं हो सकता; निराकारता ही आदर्श है। आदर्श परिमित नहीं हो सकता। जो अप्रमेय से लघु है, वह आदर्श नहीं हो सकता। शरीर अप्रमेय हो नहीं सकता; यह असंभव है। परिमित होने ही से तो शरीर होता है। हमें शरीर और मन के बाहर जाना है, परे जाना है। यही अद्वैत- वाद का कथन है। और हम यह भी देख चुके हैं कि अद्वैत के अनुसार जो मुक्ति प्राप्त करना है, वह हमें प्राप्त है। हम केवल उसे भूले हैं और मानते नहीं हैं। पूर्णता कहीं से प्राप्त करना नहीं