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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/११०

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कर्मयोग
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की आशा करते हैं। हमारे पुराने तार्किक और नैयायिक इस नियम को व्याप्ति कहकर पुकारते हैं। उनके अनुसार ऐसे धर्म के विचार सांसारिक वातावरण के अनुसार होते हैं। एक विशेष प्रकार का वातावरण हमारे मन में किन्हीं विशेष वस्तुओं से ऐसे सम्यान्धत हो जाता है कि उसे देखते ही हमें हठात् उन्हीं वस्तुओं का ध्यान आ जाता है। कोई भी विचार, अथवा हमारे मनोविज्ञान के अनुसार चित्त की कोई भी लहर जब एक वार उठती है, तो उसके कारण अन्य लहरें भी उठती हैं । वातावरण के सम्बन्ध का यह मनोवैज्ञानिक विचार है तथा कार्य-कारण-सिद्धान्त इस महती व्याप्ति का एक अङ्ग-मात्र है। वाह्य-प्रकृति में धर्म से वही तात्पर्य है जो आंतरिक में यह आशा कि एक विशेप प्रकार के घटनाक्रम का यथासम्भव अनु- वर्तन होगा। सच पूछा जाय तो प्रकृति में कोई उसका अपना धर्म कहकर नहीं। यह कहना भूल है कि पृथ्वी में आकर्षण-धर्म निवास करता है अथवा प्रकृति में कहीं भी उसका कोई धर्म है। धर्म उस रीति, उस प्रणाली का नाम है जिससे हम किसी घटना- वली को समझते हैं। यह सब मन के भीतर होता है। कुछ घटना-क्रम एकसाथ अथवा एक के बाद एक होकर हमें इस बात का विश्वास दिला देते हैं कि वह क्रम उसी भाँति चलेगा; उस क्रम का नियम हम जान लेते हैं, वही 'धर्म होता है।

दूसरा विचारणीय प्रश्न यह है, ऐसे धर्म की सार्व-देशिकता से हमारा क्या तात्पर्य है। हमारा विश्व सत्चा का वह भाग है जो