पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/११३

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कर्मयोग
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है। इसलिये आप देख सकते हैं, यह सोचना कि मनःकल्पना के अनुसार इस संसार का अस्तित्व आगे भी रहेगा कितना बच- पन है, यह आशा करना कि हमें मरने पर स्वर्ग मिलेगा क्योंकि स्वर्ग भी हमारे ज्ञात संसार का एक अनुवर्तन-मान-सा होगा। यह स्पष्ट है कि अनंत सत्ता को अपने गोचर संसार के नियमों से, जिन्हें हम जानते हैं नियमित करने को इच्छा कितनी मूर्खता- पूर्ण और असंभव है। इसलिये जब कोई व्यक्ति कहता है कि अमुक वस्तुएँ, जो उसके पास आज हैं, उसे फिर भी मिला करेंगी, अथवा जैसा कि मैं कभी-कभी कहा करता हूँ, उसे अपनी सुविधाओं के अनुसार धर्म चाहिये, तब आप समझ लीजिये कि वह इतना पतित हो गया है कि अपनी तात्कालिक अवस्था से किसी महत्तर दशा की कल्पना करना उसके लिये संभव नहीं वह अपने चारों ओर के बंधनों से बँधा हुआ है, उनके परे वह देख नहीं सकता। वह अपनी सीमाहीनता को भूल गया है तथा प्रतिदिन के दुख-सुख, राग-द्वेष आदि से वह निर्लिप्त नहीं रह सकता । वह समझता है कि यह सांत ही अनंत है; यही नहीं, वह इस मूर्खता को छोड़ेगा भी नहीं । जीवन की अभिलापा, तृष्णा का वह पल्ला मजबूती से पकड़ लेता है, जिसे बौद्ध "तन्ह" और "तृस्सा" कहते हैं। चाहे लाखों तरह के सुख, जीवन, धर्म, उन्नति, अवनति और कार्य-कारण के क्रम हमारे ज्ञात विश्व के बाहर गतिशील हों परन्तु वह सब भी हमारी प्रकृति के एक भाग मात्र होंगे।