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पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/१२८

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कर्मयोग
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होगा, जब हम जानते हैं कि जुद्रतम प्राणी की वह रक्षक है ? हमें उसके सामने श्रद्धावनत हो यही कहना है, "तेरी इच्छा पूर्ण हो !" उच्चतम कोटि के व्यक्ति कर्म नहीं कर सकते क्योंकि उनके लिये कोई प्रासक्ति नहीं । "जो पुरुप में जाकर मिल गये हैं, जिनकी इच्छायें पुरुष में हैं, जो अपने आपको उससे भिन्न नहीं जानते, उनके लिये कर्म नहीं वे वास्तव में मनुष्य-जाति के मुकुट-मणि । परन्तु उनसे इतर सबको कर्म करना है। इस प्रकार कर्म करते हुये हमें यह न सोचना चाहिये, किसी छोटी-सी वस्तु की यहाँ हम सहायता कर सकते हैं। हम नहीं कर सकते । इस विश्व-व्यायाम- शाला में अभ्यास कर हम स्वयं स्वस्थ हो सकते हैं। कर्म करने के लिये यही उचित दृष्टिकोण है। यदि हम इस प्रकार कर्म करें, यदि हम इस बात का सदा स्मरण रक्खें कि हमें जो कर्म करने का अव- सर मिला है, वह हमारा सौभाग्य है, तो हम कभी आसक्त न हों। हमारी-तुम्हारी तरह संसार के सैकड़ों श्रादमी अपने आपको बहुत बड़ा समझते हैं, परन्तु हम सब मर जाते हैं, पाँच मिनट में संसार हमें भूल जायगा। किन्तु ईश्वर का जीवन अनन्त है। "वह सर्वशक्तिमान न चाहे तो यहाँ कौन पलभर भी जीवित रह सकता है, पलभर साँस ले सकता है ? वह अनन्त अनवरत कर्मोंवाला ईश है। सव शक्ति उसकी है और उसकी आज्ञा में। उसी की आज्ञा से हवायें चलती हैं, सूर्य चमकता है, पृथ्वी घूमती है, और पृथ्वी पर उग्ररूपा मृत्यु विचरण करती है। वह सर्व- शक्तिशाली और सर्वव्यापी है। हम केवल उसकी उपासना कर