पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/२९

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कर्मयोग
 

से पाई जाती है। उनकी आचार-विचार और धर्म की पुस्तकों में विभिन्न श्रेणी के पुरुषों के लिये भिन्न-भिन्न नियम बनाये गये हैं--गृहस्थ, संन्यासी, ब्रह्मचारी आदि के लिये।

हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार प्रत्येक मनुष्य का साधारण मानवधर्म से भिन्न व्यक्तिगत-धर्म है। हिन्दू का जीवन ब्रह्मचर्यावस्था से आरम्भ होता है; इसके बाद विवाह कर वह गृहस्थ बनता है; वृद्ध होने पर वह वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करता है; अन्त में संसार त्याग वह संन्यासी हो जाता है। प्रत्येक आश्रम का उसके अनुरूप धर्म है। कोई आश्रम दूसरे से बड़ा-छोटा नहीं; गृहस्थ का जीवन उतना ही महान् है जितना ब्रह्मचारी का। सिंहासनासीन सम्राट् उतना ही महान् है जितना पथ की धूल झाड़नेवाला शूद्र। उसे सिंहासन से उतार लीजिये और फिर देखिये वह शूद्र का काम कैसे कर पाता है। शूद्र को सिंहासन पर बिठा दीजिये और देखिये वह कैसे शासन कर पाता है। यह कहना व्यर्थ है कि जो संसार छोड़ उसके बाहर रहता है, उस आदमी से बड़ा है जो संसार के भीतर रहता है। संसार छोड़ वन में शांत जीवन बिताने से संसार में रहते हुये ईश्वर की उपासना करना कहीं अधिक कठिन है। भारतवर्ष में आश्रम टूटकर अब दो रह गये हैं--एक गृही का, दूसरा संन्यासी का। गृही विवाह कर नागरिक धर्म का पालन करता है; संन्यासी का धर्म उपदेश और ईश्वर की उपासना में अपनी सारी शक्तियाँ लगाना है। अब आप देखेंगे, किसका जीवन अधिक कठिन है। मैं "महा-