पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

भूमिका

प्रस्तुत पुस्तक स्वामी विवेकानंद के न्यूयार्क में दिये गये आठ व्याख्यानों का अनुवाद है। यद्यपि कोई योग औरों से न्यून नहीं, उनका समुचित अभ्यास करने से समान फल मिलता है, तथापि कर्मयोग के भीतर जो एक साहसिकता, एक शूरता है, वह शायद औरों में नहीं। अबाध गति से चलते संसार-चक्र में उसके कठोर घर्षण का भय न कर कूद पड़ना, उसके अनगनित यंत्रों की पीड़ा सह अंत में उसे वश में कर लेना, जीवन की यह कविता इन व्याख्यानों में सविशेष झलकती है। गीता की वाणी का अनुकरण करते स्वामी विवेकानंद फिर एक बार सबको संसार का वीरता पूर्वक सामना करने के लिये आहूत करते हैं। यहाँ उन्होंने अंकपित स्वर से मनुष्य मात्र की महत्ता की घोषणा की है। क्षुद्र से क्षुद्र स्थिति का व्यक्ति भी कर्मयोगी हो महत्तम के सम्मान का अधिकारी हो सकता है। अपने-अपने विकास का मार्ग सबके आगे खुला है। कर्मयोग की यही शिक्षा है कि मनुष्य उसपर चलकर अपनी पूर्णता का अनुभव कर सके।

अनुवादक—