पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/४६

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कर्मयोग
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चलने से शुभ कर्म करने की प्रवृति हममें प्रबल हो जाती है और उसके फलस्वरूप हम अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेते है। इसी भांति चरित्र-निर्माण हो सकेगा; तभी आप सत्य पा सकेंगे : ऐसे ही मनुष्य अभय और अजेय हो सकते हैं। उन्हें आप किसी भी संगति में कहीं भी बिठा दीजिए, उनके लिए कोई भय नहीं। इस शुभ-कर्म-प्रवृत्ति से भी बढ़कर मनुष्य की एक उभतर दशा है, मुक्ति की इच्छा हमारे भारतीय योगों का ध्येय आत्मा की मुक्ति ही है; और प्रत्येक एक ही फल समान रूप से दे सकता है। जहाँ बुद्ध ध्यान से अथवा ईसा प्रार्थना से पहुंचे थे, मनुष्य कर्म से पहुँच सकता है। बुद्ध एक कर्मठ ज्ञानी थे, ईसा भक्त; और वे दोनों एक ही लक्ष्य को पहुंचे थे। कठिनता यहीं पर है। मुक्ति का अर्थ है, पूर्ण स्वतंत्रता,- शुभ और अशुभ दोनों के ही बंधनों से छुटकारा। सोने की जंजीरे लोहे की जंजीर की भाति जंजीर ही है। मेरी अँगुली में एक काँटा लगा, दूसरा काँटा ले मैं उसे निकाल देता हूँ। बाद में दोनों को ही मैं फेंक देता हूँ। दूसरा काँटा मैं अपने पास नहीं रख लेता क्योंकि आखिर दोनों काँटें ही तो हैं। इसलिये अशुभ संस्कारों का प्रभाव शुभ संस्कारों से नष्ट करना चाहिये, अशुभ प्रवृत्तियों का शुभ प्रवृत्तियों से, यहाँ तक कि जो कुछ भी अशुभ है या तो प्रायः नष्ट हो जाये अथवा वश में रक्खा जाये। परंतु उसके पश्चात् शुभ प्रवृत्तियों, संस्कारों पर भी. विजय पानी होती है। इस भाँति ही आसक्त अनासक्त