पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/५२

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कर्मयोग
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उसके वास्तविक रूप में देख लेते हैं। प्रकृति हमारे लिये और जंजीरें नहीं गढ़ सकती। हम स्वतंत्र हो कर्मों के परिणामों से परे हो जाते हैं। कर्म-फल की उस समय किसे चिंता हो सकती है? प्रेम और स्वतंत्रता के लिए कार्य करनेवाले पुरुष को फल की चिंता करने को आवश्यकता नहीं; वह स्वयं निःस्वार्थ है, अतः कर्म के किसी फल से उसे दुख नहीं हो सकता।

अपने बचों को कोई कुछ देकर उनसे बदले में क्या माँगता है? मनुष्य का कर्तव्य है कि उनका भरण-पोषण करें, और वहीं उस बात का अंत हो जाता है। जो कुछ भी तुम किसी व्यक्ति- विशेष, जाति अथवा देश के लिए करना चाहते हो, अवश्य करो किंतु उनके प्रति अपनी वैसी ही धारणा रक्खो, जैसी तुम्हारी तुम्हारे बचों के प्रति है; बदले में कुछ न चाहो। यदि तुम निरंतर दानी के आसन पर बैठ सकते हो, जहाँ से तुम्हारी ही प्रत्येक वस्तु संसार के लिए स्वतंत्र भेट है, बिना किसी प्रत्युपकार के विचार के तब तुम्हारा कर्म आसक्ति द्वारा तुम्हें न बाँध सकेगा। आसक्ति वहीं होती है जहाँ कृत कर्म के लिए हम बदले में कुछ चाहते हैं।

यदि दास की भाँति कर्म करने से कर्म-फल में आसक्ति और स्वार्थ-बांछा होती है, तो अपने मन के बादशाह होकर काम करने से अनासक्ति का आनन्द मिलता है। हम लोग बहुधा न्याय और सत्य के विषय में बातचीत करते हैं परंतु संसार में इनका महत्त्व ऐसा है, जैसा बच्चों की बातों का। मनुष्य को कर्म करने के लिए दो बातें वस्तुतः प्रेरित करती हैं; वे दया और शक्ति हैं। शक्ति .