पृष्ठ:विवेकानंद ग्रंथावली खंड 3.djvu/९२

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कर्मयोग
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जाती हैं। यही हाल पुण्यात्मा का होता है। वायु-मंडल में जितनी भी अच्छी लहरें होंगी, उनसे प्रभावित होने के लिये उसका मन खुला रहेगा और उसके शुभकर्म घनीभूत होंगे। बुरे काम करने से दुगनी हानि होती है ; वायु-मंडल में छाई बुराइयों के प्रवेश के लिये हम अपने मन का दरवाजा खाल देते हैं ; दूसरे हम और भी बुराई को जन्म देते हैं जिसका दूसरों पर प्रभाव पड़ेगा। हो सकता है, हमारे विचारों से सौ वर्ष बाद लोग प्रभावित हों। बुराई से हम अपना-पराया दोनों का नुकसान करते हैं। भलाई से हमारी और दूसरों की भी भलाई होती है; और मनुष्य की अन्य शक्तियों की भाँति ये पाप-पुण्य की शक्तियाँ भी बाहर से खूराख पाती हैं।

कर्मयोग के अनुसार एक बार किया कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं हो सकता; प्रकृति की कोई भी शक्ति उसे अपना फल देने से रोक नहीं सकती। यदि मैंने पाप किया है, तो मुझे उसका फल भोगना ही पड़ेगा; सृष्टि में ऐसी शक्ति नहीं जो उसे रोक सके। इसी प्रकार यदि मैंने कोई पुण्य-कर्म किया है तो कोई भी शक्ति उसे उसके शुभ फल देने से नहीं रोक सकती। कर्म का फल होना ही चाहिये ; इस नियम में कोई बाधा नहीं दे सकता। अब कर्मयोग-संबंधी एक विचारणीय विषय आता है। हमारे इन शुभाशुभ कर्मों का घनिष्ठ पारस्परिक संबंध है। उनके बीच रेखा खींच हम नहीं कह सकते, यह पूर्णरूप से शुभ है, वह पूर्णरूप से अशुभ । ऐसा कोई कर्म नहीं जिसके शुभ और