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टित रहता है) विशेष उत्तेजन और मनोधर्म भी होता है---दृष्टांत के लिये पौधो के पराग या परागकेसर को लीजिए।

(क) उद्भिदात्मा–--यह बहुघटक पौधों की समस्त आंतरिक वृत्तियों का सारांश है। पहले पौधों और जंतुओं में बड़ा भारी भेद यह समझा जाता था कि जंतुओं में आत्मा होती है और पौधो मे नहीं। पर घटकविधान और कललरसविधान का पता लग जाने से अब जंतुओ और पौधो की मूलयोजना की समानता सिद्ध हो गई है। आजकल के तारतम्यिक शरीरविज्ञान ने अच्छी तरह दिखा दिया है कि बहुत से पौधा और क्षुद्र जंतुओ की प्रवृत्ति पर प्रकाश, ताप, विद्युत्प्रवाह, सघर्षण और रासायनिक क्रिया इत्यादि उत्तेजनो का प्रभाव समान पड़ता है और दोनों में इस प्रकार के उत्तेजन से एक ही ढंग की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। ऐसे उत्तेजनो से जिस प्रकार की प्रतिक्रिया स्पंज, मूँगे के कृमि आदि मे उत्पन्न होती है उससे बढ़कर लजालु और मक्षिकाग्राही आदि पौधा मे देखी जाती है। अत. यदि एक की क्रिया को हम आत्मा की क्रिया मानते हैं तो दूसरे की क्रिया को भी आत्मा की क्रिया क्यो न माने? जो लजालु छूने के साथ ही अपनी पत्तियो को बंद कर लेता और टहनियों को झुका लेता है, जो मक्षिकाग्राही पौधा पत्ते पर मक्खी बैठते ही उस पत्ते को दूसरे पत्ते के साथ जुटा कर मक्खी को फँसा लेता है उसमे स्पंज आदि की अपेक्षा अधिक संवेदन और गतिशक्ति हमे माननी पड़ेगी।

(ख) संवेदनसूत्र-रहित अनेकघटक जीवो की आत्मा--उन क्षुद्र बहुघटक जीवो के मनोव्यापार ध्यान देने