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प्रकाश, शब्द, तथा स्थूल पदार्थों का ग्रहण ऊपरी त्वक् पर सर्वत्र समान रूप से होता है। ऊपरी त्वक् सर्वत्र समान रूप से संवेदनग्राही होता है। क्रमशः ऊपरी त्वक् पर विभिन्नताएँ उत्पन्न होने लगी। कुछ स्थानो में दूसरे स्थानो से कुछ विशेषता प्रकट होने लगी अर्थात् कुछ स्थान वाह्य विषय-संपर्क को विशेष रूप से ग्रहण करने लगे। क्रमशः अभ्यास द्वारा ये स्थान संपर्कग्रहण मे अधिक तीव्र होते गए जिससे वाह्य विषयों का प्रभाव उन पर अधिक पड़ता गया। वाह्य विषयो के अधिक संयोग से उन स्थानो की बनावद में भी कुछ विशेषता आने लगी। फल यह हुआ कि संवेदनग्राही घटक अलग होगए। उनसे सवेदनसूत्रो की योजना हुई। बाहरी त्वक् पर जहाँ कही प्रकाश, शब्द, स्थूल पदार्थ आदि का सपर्क हुआ कि इन्ही सूत्रो के सहारे उसकी संवेदन सारे संवेदनसूत्रजाल में दौड़ गया। क्रमशः इन संवेदनसूत्रो का एक केद्रस्थल ग्रंथि के रूप में उत्पन्न हुआ जिसे ब्रह्मग्रंथि कहते है। यही केद्रस्थान बड़े जीवो का मस्तिष्क है। वाह्य विषय भिन्न भिन्न प्रकार के होते है और उनका ग्रहण भी भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। अतः वाह्य त्वक् के संवेदनग्राही स्थानों में भी क्रमश भेदविधान होने लगा। एक स्थान एक प्रकार का विषय ग्रहण करने मे अधिक तीव्र होता गया, दूसरा दूसरे प्रकार का। होते होते यहाँ तक हुआ कि एक प्रकार के विषय का ग्रहण एक ही निर्दिष्ट स्थान पर होने लगा जिस से भिन्न भिन्न इंद्रियगोलको का विकाश हुआ जो पहले त्वक् की परतो से बने