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पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/११४

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अठा अध्याय] } से सब से प्रसिद्ध शुनःशेप आख्यान है यह एतरेय ब्राह्मण के ३३ वै अध्याय में है। ऐतरेय ब्राह्मण से ही ऐतरेय आरण्यक का भी संबन्ध है। इसमें १८ अध्याय हैं । अनिश्चित रूप से पाँच भागों में बटे हुए हैं। अंत के दो अध्यायों की रचना सूत्रों के ढंग की है, अतः उनकी गणना सूत्रों में ही की जानी चाहिये । इसके प्रथम भाग में सामयाग का वर्णन है, द्वितीय भाग के प्रथम तीन अध्यायों में दार्शनिक विचार हैं, उसमें प्राण और पुरुष नामधारी संसारी जीव के विकाश का वर्णन है, यह वर्णन उपनिपदों के ढग पर है और कौपीतक उपनिपद् में इसका अनुकरण ही किहा गया है, दूसरे भाग के शेष अध्यायों से ऐतरेय उपनिषद् है । अन्त के भागों में संहिता -क्रम और पद पाठों का वर्णन किया गया है। कौपीतकी ब्राह्मण से कौपीतकी श्रारण्यक का संबन्ध है। इसमें पंद्रह अध्याय हैं। इनमें से प्रथम दो अध्यायों का वही विषय है जो ऐतरेय आरण्यक के प्रथम और पंचम भाग का है। इसके अतिरिक्त सातवें और पाठवें अध्यायों का विषय ऐतरेय आरण्यक के तीसरे भाग से मिलता जुलता है । बीच के चार अध्यायों (३--६) मैं कौपीतकी उपनिषद् है। सामवेद के ब्राह्मणों में जैमिनीय तवल्कार ब्राह्मण सब से प्राचीन है। यह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। संभवतः इसके पांच भाग हैं । इसमें से प्रथम तीन में यज्ञ के भिन्न भिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। चौथे भाग का नाम उपनिपद् ब्राह्मण है, यह आरण्यक के ढग पर लिखा गया है। इसमें दो ऋपियों की सूचियां, तथा एक भाग प्राण की उत्पत्ति के विपय में और एक सावित्री के विषय में है, शेप में इसमें केन उपनिषद् हैं। इसके पांचवें भाग का नाम प्राय ब्राह्मण है। इसमें सामवेद के रचयिताओं की गणना है। .. ।