पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/२०१

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नवा अध्याय ] सर से . ~ चदकर धर्म कहा गया है । स्वर्ग प्राप्ति के लिये क्रियाएँ एक-मान. द्वार मानी जाती थी। गौतम कहते हैं- वह मनुष्य जो इन पवित्र कर्मों को करता है, परन्तु जिसकी प्रात्मा में भलाइयाँ नहीं हैं, तो उसे स्वर्ग नहीं मिलेगा । परन्तु वह, लो इन कर्मों में से केवल कुछ कर्मो को भो यथार्थ में करता हो, और जिसकी अात्मा में उत्तम भलाइयाँ मौजूद हैं तो वह स्वर्ग में निवास करेगा।" ( ८१२४॥२५) पूर्व मीमांसा में यज्ञों पर बहुत वाद-विवाद किया गया है। उसमें तीन रीतियों का उल्लेख किया गया है । अर्थात् पवित्र अग्नि को स्थापित करना, हवन करना, और सोम तैयार करना । ये प्रश्नोत्तर और उनपर होनेवाले विवाद अद्भुत हैं । कुछ यज्ञों में ऐसा विधान है कि यजमान अपनी सब सम्पत्ति यज्ञ- करनेवाले चाह्मणों को देदे । यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या राजा को भी अपनी सब भूमि चरागाह, सड़क, झील, तालाब ब्राह्मणों को दे देने चाहिये । इसका उत्तर दिया गया कि भूमि राना की सम्पत्ति नहीं होती और इसलिये वह उसे नहीं दे सकता । राजा केवल देश पर राज्य कर सकता है। परन्तु देश उसकी सम्पत्ति नहीं है । क्योंकि यदि ऐसा होता तो उसकी प्रजा के घर भूमि अादि उसी की सम्पत्ति हो जाते । किसी राज्य की भूमि को राजा नहीं दे सकता-परन्तु यदि राजा ने कोई घर वा खेत मोल लिया हो तो वह उन्हें दे सकता है। इसी प्रकार अग्नि में अपना (?) वलिदान करने का प्रश्न दूसरों को हानि पहुँचाने के लिये यज्ञ करने का प्रश्न और ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर बड़ी बुद्धिमानी के साथ विचार किया गया है। पूर्वमीमांसा में लिखा है कि बड़े यज्ञों में कार्य-कर्ता लोगों की पूरी संख्या १७ होती है । १ यजमान और १६ पुरोहित परन्तु छोटे अवसरों पर केवल चार ही माह्मण होते है।