पृष्ठ:वेद और उनका साहित्य.djvu/६२

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दूसरा अंध्याय] देवता माना गया है। परन्तु ऋग्वेद पिगण प्रकृति से प्रकृति के देवताओं की ओर बढ़े हैं। उनने वह अाकाश जो व्यापक और प्रकाशित है, वह सूर्य को प्रकाश और उष्णता प्रदान करता है, वह वायु जो जीवन दाता है, दे प्रचण्ड जल जो भुमि को उपजाऊ बनाने वाली कृषि को भाती हैं को देवताओं की तरह माना। इनमें से 'धु' लगभग यूनानियों का, “जीउस" सेमन्स का, 'जुपिटर का प्रथम अक्षर (जु), सेकसन लोगों का 'टिड' और जर्मनों का 'निग्रो' है। यद्यपि ग्रोस और रोम के देवताओं में बहुत दिनों तक नीरस और जुपीतर प्रधान रहे किन्तु वैदिक देवताओं में 'इन्द्र' ने विशेष स्थान ग्रहण किया । क्योंकि भारत में नदियों को वार्षिक वाद, पृथ्वी की उपज, फसल की उत्तमता चमकोले आकाश पर निर्भर नहीं मेघ पर निर्भर थी। 'वरुण' ही ग्रीक लोगों का 'उरेनस' है। यह भी श्राकाश के ही अर्थों में हैं; परन्तु 'यु' से विपरीत । 'ग्रु' प्रकाशमान दिन का अाकाश और वरुण अंधकार युक्त रात्रि का अाकाश । 'मित्र' शब्द भी दिन के चमकीले श्राकाश के लिए पाया है। जिन्दाबम्ता का 'मिथू' शब्द भी यही है। वैदिक विद्वान मित्र और वरुण को दिन और रात बताते हैं। ईरानी लोग 'मिथ' को सूर्य कहते हैं और 'वरुण' को अन्धकार । जर्मनी के प्रख्यात विद्वान १० राथ का मत है कि अायों और ईरानियों के जुदा होने के प्रथम 'वरुण' दोनों ही का पवित्र देवता था । है वेद में बने काले बादलों को 'वृत्र' नाम दिया गया बादल जो कभी नहीं वरसते 'वृत्रासुर' है । यह पौराणिक कथा है कि यह 'वृत्र' जल को रोक लेता है जब तक कि इन्द्र, ब्रन प्रहार न करे । इस प्राकृत घटना पर ऋग्वेद में सुन्दर वर्णन है। इस युद्ध में वृत्र (धने काले चामलों) पर इन्द्र नो वास्तव में लल पूर्ण मेघ है नव बज्र प्रहार