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पृष्ठ:वेनिस का बाँका.djvu/१७३

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वेनिस का बाँका
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स्ततः मारा मारा फिरा और अन्त को भाग्य मुझे खींच कर वेनिस में लाया। उस समय मेरा स्वरूप इतना बदल गया था कि मुझको पकड़ जाने का तनिक भय न था, बरन यह आशंका थी कि ऐसा न हो कि मैं उपवास करते करते मर जाऊँ-परन्तु इस बीच ऐसा संयोग हुआ कि मुझसे बेनिस के डाकुओं से परस्पर हो गया, मैंने हर्ष से उनका सहवास स्वीकार किया। मेरी अभिलाषा यह थी कि पहले तो अवसर पाकर बेनिस से इस आपदा को निवारण करूँ, और दुसरे उनके द्वारा उनलोगों को भी पहचान लूँ जो डाकुओं से कार्य्य कराते हैं। मैंने इस बात में सिद्धिलाभ की अर्थात् डाकुओं के अधीश्वर को रोजा- बिला के सामने मारा। और शेष लोगों को पकड़वा दिया। उस समय बेनिस भर में मैं ही एक डाकू रह गया और प्रत्येक व्यक्ति को मेरे ही पास आना पड़ा। रस रीति से मुझे परोजी और उसके सहकारियों की अभिसन्धि का भेद ज्ञात हुआ और अब आप लोग भी उनसे अभिज्ञ हो गये। मैंने देखा कि वे लोग महाराज के तीनों मित्रों के प्राण अपहरण करना चाहते हैं, उन के समीप विश्वस्त बनने के लिये यह अवश्य था कि उनको किसी प्रकार विश्वास हो जाता कि तीनों व्यक्तियों का मैंने संहार किया। इस विषय में पूर्ण विचार करके मैंने एक बात निकाली और उस समय लोमेलाइनो से जाकर सम्पूर्ण समा- चारों को कहा। इस कार्य में वे ही मेरे सहकारी थे उन्होंने मुझको महाराज के सामने मित्र का पुत्र बनाकर उपस्थित किया। उन्होंने ही मुझको उत्तमोत्तम परामर्श दिये, उन्हींने मुझे राजकीय उपवनों की कुञ्चिकायें दीं, जिनमें महाराज और उनके मुख्य मित्रोंके अतिरिक्त कोई व्यक्ति जाने नहीं पाता था और जिनके द्वारा मैं प्रायः बच कर निकल जाता था। उन्हींने मुझे महाराज के प्रासादों के गुप्त मार्गों को दिखलाया जिन से