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पृष्ठ:वेनिस का बाँका.djvu/२०

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॥श्रीः॥
वेनिस का बांका
पहला परिच्छेद

न्ध्याका सुहावना समय, शोभाकी अधिकता का प्रादुर्भाव, दल के दल हलके पर्जन्यों का जमघटा, कहीं बहुत कहीं कम। घन पटल के प्रत्येक खण्डों से कलाकर निशिनाथ की छटा दिखलाई देती थी, प्राण उसके प्रमत्त गमन पर न्योछावर हुआ जाता था, घनाच्छादन में यही ज्ञात होता था कि उच्च अट्टालिका से कोई प्रेयसी अपनी अलौकिक छटा दिखाती है, और दीन प्रेमी के तरसाने के लिये बार बार जाली के मुखाच्छादक पट से अपना मुख छिपाती है। एड्रियाटिक समुद्र की प्रत्येक प्रोत्थित तरंगे आदर्श का कार्य करती थीं, हिमकर का प्रकाश और माधुर्य शतगुण कर दिखाने का उत्साह रखती थीं। इसपर सन्नाटा और भी आश्चर्यजनक था मनुष्य को कौन कहे जहाँ तक दृष्टि जाती पशु भी दिखलाई न देता। वायु भी बहुत ही मन्द मन्द चलती और अपना पद फूँक फूँक कर रखती थी। प्रयोजन यह कि जिधर नेत्र उठा कर अवलोकन कीजिये यही समा दृष्टिगोचर होता था, सिवाय पवन की सनसनाहट और तरङ्गों की धीमी २ गड़गड़ाहट के और कुछ सुनाई न देता था। कैसा ही आपत्तिपतित हो दो घड़ी वहाँ जाकर बैठे व्यग्रता निवारण हो, हृत्कलिका खिले, और सारा दुःख मिट्टी में मिले।