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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०

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को प्रधानता दी गई है। शृंगाररस को रसराज कहा जाता है। उसके दो अंश हैं, संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार अथवा विप्रलम्भ शृंगार। वियोग श्रृंगार में रति की ही प्रधानता है, अतएव प्राधान्य उसी को दिया गया है। दूसरी बात यह कि आचार्य्य भरत का यह कथन है—

"यत्किञ्चिल्लोके शुचि मेध्यमुज्वलं दर्शनीयं वा तत्सर्व श्रृंगारेणोमपीयते (उपयुज्यतेच)"।

"लोक में जो कुछ मेध्य, उज्वल और दर्शनीय है, उन सब का वर्णन श्रृंगाररस के अन्तर्गत है"।

श्रीमान् विद्या वाचस्पति पण्डित शालिग्राम शास्त्री इसकी यह व्याख्या करते हैं—

"छओं ऋतुओं का वर्णन, सूर्य्य और चन्द्रमा का वर्णन, उदय और अस्त, जलविहार, वन-विहार, प्रभात, रात्रि-क्रीड़ा, चन्दनादि लेपन, भूषण धारण तथा और जो कुछ स्वच्छ, उज्वल वस्तु हैं, उन सब का वर्णन शृंगार रस में होता है"।

ऐसी अवस्था में श्रृंगार रस की रसराजता अप्रकट नही, परंतु साथ ही यह भी कहा गया है—

'न बिना विप्रलम्भेन संभोगः पुष्टि मश्रुते'।
'बिना वियोग के सम्भोग श्रृंगार परिपुष्ट नहीं हो पाता'।
'यत्रतुरतिः प्रकृष्टा नाभीष्ट भुपैतिविप्रलम्भोसौ'।

'जहाँ अनुराग तो अति उत्कट है, परन्तु प्रिय समागम नहीं होता उसे विप्रलम्भ कहते हैं।