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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१२

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भाषा का हृदय-द्रावक राग कितना रस-वर्षणकारी और विमुग्धकर है, कितना रोचक, तल्लीनतामय और भावुकजन विमोहक है, उसको बतलाने में जड़ लेखनी असमर्थ है। रामचरितमानस के वे अंश जो अन्तस्तल में रस की धारा बहा देते हैं, जिनमें उच्च कोटिका कवि-कर्म्म पाया जाता है, जिनकी व्यंजना में भाव-व्यंजन की पराकाष्ठा होती है, उसके विप्रलम्भ शृंगार सम्बंधी अंश भी वैसे ही हैं। मलिक मुहम्मद जायसी का 'पद्मावत' भी हिन्दी-साहित्य का एक उल्लेखनीय ग्रंथ है, उसमें भी पद्मावती का पूर्वानुराग और नागमती का विरह-वर्णन ही अधिकतर हृदयग्राही और मर्म्मस्पर्शी है। प्रज्ञाचक्षु सूरदास और महात्मा गोस्वामी तुलसीदास जैसे महाकवि हिन्दी-संसार में अब तक उत्पन्न नहीं हुए। इन महानुभावों की लेखनी में अलौकिक और असाधारण क्षमता थी। इन लोगों की लेखनकला से विप्रलम्भ श्रृंगार को जो गौरव प्राप्त हुआ है, उससे सिद्ध है कि शृंगार रस पर विप्रलम्भ शृंगार का कितना अधिकार है। शृंगार रस के बाद वीर रस को ही प्रधानता दी जाती है, किन्तु इस रस में भी करुण रस की विभूतियाँ दृष्टिगत होती हैं। वीर रस की इतिश्री युद्ध-वीर और धर्म-वीर में ही नहीं हो जाती, उसके अंग दया-वीर और दान-वीर भी हैं, जो अधिकतर करुणार्द्र-हृदय द्वारा संचालित होते रहते हैं। श्मशान का कारुणिक-दृश्य निर्वेद का ही सृजन नही करता है, भयानक और वीभत्स रस का प्रभाव भी हृदय पर डालता है। वसुंधरा के पाप-भार