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वैदेही-वनवास
सुजला - सुफला - शस्य श्यामला ,
भू जो भूपित होती है।
तुमसे सुधा लाभ कर तो सरु -
महि भी मरुता खोती है ॥२८॥
रम्य - नगर लघु - ग्राम वरविमा ,
दोनों तुमसे पाते हैं।
राज - भवन हों या कुटीर, सब
कान्ति-मान बन जाते हैं ॥२९॥
तरु - दल हों प्रसून हों तृण हों ,
सबको द्युति तुम देती हो।
औरों की क्या बात रजत - कण ,
रज - कण को कर लेती हो ॥३०।।
घूम घूम करके धनमाला ,
रस बरसाती रहती है।
मृदुता सहित दिखाती उसमें ,
द्रवण - शीलता महती है॥३१॥
है जीवन - दायिनी कहाती ,
ताप जगत का हरती है।
तरु से तृण तक का प्रतिपालन ,
जल प्रदान कर करती है ॥३२।।