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त्रयोदश सर्ग

नीचाशयता की वे चरम - विवृत्ति थीं।
दुराचार की वे उत्कट - आवृत्ति थीं।
रावण वज्र - हृदयता की थी प्रक्रिया।
दानवता की वे दुर्दान्त - प्रवृत्ति थीं ॥४९॥

किन्तु हुआ पामरता का अवसान भी।
पापानल मे स्वयं दग्ध पापी हुआ ।।
ऑच लगे कनकाभा परमोज्वल बनी।
स्वाति - विन्दु चातकी चारु - मुख में चुआ ॥५०॥

आपके परम - पावन - पुण्य - प्रभाव से।
महामना श्री भरत - सुकृति का बल मिले।
फिर वे दिन आये जो बहु वांछित रहे।
जिन्हें लाभकर पुरजन पंकज से खिले ॥५१।।

हुआ राम का राज्य, लोक अभिरामता।
दर्शन देने लगी सब जगह दिव्य वन ।।
सकल - जनपदों, नगरों, प्रामादिकों मे।
विमल - कीर्ति का गया मनोज्ञ वितान तन ॥५२॥

सव कुछ था पर एक लाल की लालसा ।
लालायित थी ललकित चित को कर रही।
मिले काल - अनुकूल गर्भ - धारण हुआ।
युगल उरों में वर विनोद धारा बही ।।५३।।