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चतुर्दश सर्ग

पति - देवता हुई हैं होंगी और हैं।
किन्तु सदा उनकी संख्या थोड़ी रही।
मिली अधिकतर सांसारिकता में सधी।
कितनी करती हैं कृत्रिमता की कही ।। ५९ ॥

मुझे ज्ञात है, है गुण - दोषमयी - प्रकृति ।
किन्तु क्यों न उर में वे धाराये बहें ॥
सकल - विषमताओं को जिनसे दूरकर ।
होते भिन्न अभिन्न - हृद्य दम्पति रहे ॥६०॥

किसी काल मे क्या ऐसा होगा नहीं।
क्या इतनी महती न बनेगी मनुजता ॥
सदन सदन जिससे बन जाये सुर - सदन ।
क्या बुध - वृन्द न देगे ऐसी विधि बता ॥ ६१ ॥

अति - पावन - बंधन में जो विधि से उधे ।
क्यों उनमें न प्रतीति - प्रीति भरपूर हो ।
देवि आप मर्मज्ञ हैं वताये मुझे।
क्यों दुर्भाव - दुरित दम्पति का दूर हो ।। ६२॥

कहा जनकजा ने मैं विवुधे आपको।
क्या बतलाऊँ आप क्या नहीं जानतीं ॥
यह उदारता, सहृदयता है आपकी।
जो स्वविषय - मर्मज्ञ मुझे है मानती ।। ६३ ॥