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चतुर्दश सर्ग

वर नारी मे है समान, अनुभूति भी -
इसीलिये प्रायः उनकी है एक सी॥
कब किसका कैसा होता परिणाम है।
क्या वश मे है औ किसमे है वेबसी ॥ ६९॥

क्यों उलझी - बाते भी जाती हैं सुलझ ।
कैसे कव जी मे पड़ जाती गॉठ है।
हरा भरा कैसे रहता है हृदय - तरु ।
कैसे मन बन जाता उकठा - काठ है।। ७० ॥

कैसे अन्तस्तल - नभ मे उठ प्रेम धन ।
जीवन - दायक बनता है जीवन बरस ।।
मेल - जोल तन क्यो होता निर्जीव है।
मनोमलिनता रूपी चपला को परस ॥७१॥

कैसे, अमधुर कहलाता है मधुरतम ।
कैसे असरस बन जाता है सरस - चित ।
क्यों अकलित लगता है सोने का सदन ।
कुसुम - सेज कैसे होती है कंटकित ॥७२॥

अवगुण - तारक - चय - परिदर्शन के लिये।
क्यों मति बन जाती है नभतल - नीलिमा ।।
जाती है प्रतिकूल - कालिमा से बदल ।
क्यों अनुराग - रॅगी - आँखों की लालिमा ॥७३॥