पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२८९

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पंचदश सर्ग
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सुतवती सीता
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तिलोकी

परम - सरसता से प्रवाहिता सुरसरी।
कल कल रव से कलित - कीर्ति थीं गा रही।
किसी अलौकिक - कीर्तिमान - लोकेश की।
लहरे उठ थी ललित - नृत्य दिखला रही ॥१॥

अरुण - अरुणिमा उषा - रंगिणी - लालिमा ।
गगनांगण में खेल लोप हो चली थी॥
रवि - किरणे अब थी निज - कला दिखा रही।
जो प्राची के प्रिय - पलने में पली थी ॥२॥

सरल - बालिकाये सी कलिकायें - सकल ।
खोल खोल मुंह केलि दिखा खिल रही थी।
सरस - वायु - संचार हुए सब वेलियाँ।
विलस विलस बल खा खा कर हिल रही थी ॥३॥