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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२९३

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वैंदही वनवास

वैसे ही हो कलि - निरत मछलियाँ भी।
है वग के सहित सलिल में विलमती ।।
देखो तो ला हिल मिल है लेलती।
मिला मिला कर मुंह कमी है मरमती ।।१९।।

गदि कोई तुमको मुझसे तुमसे मुझे।
छीने नो गतला दो क्या होगी दशा ॥
कोमल से कोमल बह - व्याकुल • हृदय को।
नगा न लगेगी विषम-वेदना की कगा॥२०॥

लब बोले आयेगा मुझको छीनने-
'जो, में मारूँगा उसको देगा डरा॥
कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे।
इसीलिये न कि अनुचित करना है बुरा ||२१||

फिर तुम क्यो अनुचित करना चाहते हो।
कभी किसी को नहीं सताना चाहिये।
उनके बच्चे हों अथवा हो मछलियाँ।
कभी नहीं उनको कलपाना चाहिये ।।२२।।

देखो वे है कितनी मुथरी सुन्दरी।
कैसा पुलकित हो हो वे हैं फिर रही ।।
वहाँ गये उनका सुख होगा किरकिरा ।
किन्तु पकड़ पाओगे उनको तुम नहीं ॥२३॥