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वैदेही-वनवास

नभ के लाल हुए बदली गति काल की।
दिन के छिपे निशा मुख दिखलाई पड़ा।
'उपर हुआ रविविम्ब तिरोहित तो इधर।
था सामने मनोहर - परिवर्तन खड़ा ॥९॥

आई सव्या साथ लिये विधु - विम्ब को।
धीरे - धीरे क्षिति पर छिटकी चॉदनी ॥
इसी समय देवालय मे पुत्रों सहित ।
विलसित थी पति - मूर्ति पास महिनन्दिनी ॥१०॥

कुलपति - निर्मित रामायण को प्रति - दिवस ।
लव कुश आकर गाते थे संध्या - समय ॥
बड़े - मधुर - स्वर से वीणा थी वज रही।
बना हुआ था देवालय पीयूष - मय ॥११॥

दोनो मुत थे बारह - वत्सर के हुए।
शस्त्र - शास्त्र दोनों में वे व्युत्पन्न थे।
थे सौदर्य - निकेतन छबि थी अलौकिक ।
धीर, वीर, गंभीर, शील - सम्पन्न थे॥१२॥

लव मोहित - कर घन के सरस - निनाद को।
मृदु - कर से थे मंजु - मृदंग बजा रहे ॥
कुश माता की आज्ञा से वीणा लिये।
इस पद को बन बहु - विमुग्ध थे गा रहे ।।१३।।