पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३३

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ही रहा है और रहेगा। परन्तु काल का नियंत्रण भी अपना प्रभाव रखता है, उसकी शक्ति भी अनिवार्य्य है।

मैंने हिन्दी-भाषा के आधुनिक रूप (खड़ी बोली) के प्रधान प्रधान सिद्धान्तों के विषय में जो थोड़े में कहा है, वह दिग्दर्शन मात्र है। अधिक विस्तार सम्भव न था। उन्हीं पर दृष्टि रखकर मैंने 'वैदेही-वनवास' के पद्यों की रचना की है। कवि-कर्म्म की दुरूहता मैंने पहले ही निरूपण की है, मनुष्य भूल और भ्रान्ति रहित होता नहीं। महाकवि भी इनसे सुरक्षित नहीं रह सके। कवितागत दोष इतने व्यापक हैं कि उनसे बड़े-बड़े प्रतिभावान् भी नहीं बच सके। मैं साधारण विद्या, बुद्धि का मनुष्य हूँ, इन सब बातों से रहित कैसे हो सकता हूँ। विबुधवृन्द और सहृदय सज्जनों से सविनय यही निवेदन है कि ग्रंथ में यदि कुछ गुण हों तो वे उन्हें अपनी सहज सदाशयता का प्रसाद समझेंगे, दोष ही दोष मिलें तो अपनी उदात्त चित्त-वृत्ति पर दृष्टि रखकर एक अल्प विषयामति को क्षमा दान करने की कृपा करेंगे।

दोहा
जिसके सेवन से बने पामर नर-सिरमौर।
राम रसायन से सरस है न रसायन और॥


हरिऔध
५-२-४०