यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८९
सप्तदश सर्ग
आप कही जाते, आने में देर कुछ -
हो जाती तो चित्त को न थी रोकती।
इतनी आकुल वे होती थी उस समय ।
ऑखे पल पल थी पथ को अवलोकती ।।५९।।
किसी समय जव जाती उनके पास मैं।
यही देखती वे सेवा में हैं लगी।
आप सो रहे है वे करती हैं व्यजन ।
या अनुरंजन की रंगत में हैं रॅगी ॥६०।।
वास्तव में वे पति प्राणा हैं मैं उन्हें ।
चन्द्रबदन की चकोरिका हूँ जानती ।।
हैं उनके सर्वस्व आप ही मैं, उन्हें ।
प्रेम के सलिल की सफरी हूँ मानती ॥६१।।
रोमाचित - तन हुआ कलेजा हिल गया।
हग के सम्मुख उड़ी व्यथाओं की ध्वजा ॥
जब मेरे विचलित कानों ने यह सुना।
हैं द्वादश - वत्सर - वियोगिनी जनकजा ।।६२।।
विधि ने उन्हें बनाया है अति - सुन्दरी ।
उनका अनुपम - लोकोत्तर - सौंदर्य है।
पर उसके कारण जो उत्पीड़न हुआ।
वह हृत्कम्पित - कर है परम - कदयं है ॥६३॥