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अष्टादश सर्ग
आज यही चर्चा थी घर घर हो रही।
जन जन चित की उत्कण्ठा थी चौगुनी ।।
उत्सुकता थी मूर्तिमन्त बन नाचती ।
दर्शन की लालसा हुई थी सौगुनी ।।९।।
यदि प्रफुल्ल थी धवल - धाम की धवलता।
पहन कलित - कुसुमावलि - मंजुल - मालिका ॥
वहु - वाद्यों की ध्वनियों से हो हो ध्वनित ।
अट्टहास तो करती थी अट्टालिका ॥१०॥
यदि विलोकते पथ थे वातायन - नयन ।
सजे - सदन स्वागत - निमित्त तो थे लसे॥
थे समस्त - मन्दिर बहु - मुखरित कीर्ति से।
कनक के कलस उनके थे उल्लसित से ॥११॥
कल - कोलाहल से गलियाँ भी थीं भरी।
ललक - भरे - जन जहाँ तहाँ समवेत थे।
स्वच्छ हुई सड़के थी, सुरभित - सुरभि से -
वने चौरहे भी चारुता - निकेत थे॥१२॥
राजमार्ग पर जो बहु - फाटक थे बने।
कारु - कार्य उनके अतीव - रमणीय थे।
थीं झालरे लटकती मुक्ता - दाम की।
कनक - तार के काम परम - कमनीय थे॥१३॥