पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३७

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प्रथम सर्ग
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उपवन
रोला

लोक - रंजिनी उपा - सुन्दरी रंजन - रत थी।
नभ-तल था अनुराग-रॅगा आभा-निर्गत थी ।।
धीरे धीरे तिरोभूत तामस होता था।
ज्योति-वीज प्राची-प्रदेश मे दिव बोता था ॥१॥

किरणों का आगमन देख अपा मुसकाई ।
मिले साटिका - लैस - टॅकी लसिता बन पाई ॥
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई।
भंग गान कर उठे विटप पर वजी वधाई ॥२॥