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द्वितीय सर्ग

शान्ति - रत जिसकी मति को देख ।
लोप होता रहता है कोप ।
मानसिक - तम करता है दूर ।
दिव्य जिसके आनन का ओप ॥४३॥

सुरुचिमय है जिसकी चित-वृत्ति ।
कुरुचि जिसको सकती है छू न ।।
हृदय है इतना सरस दया ।
तोड़ पाते कर नहीं प्रसून ॥४४॥

करेगा उस पर शंका कौन ।
क्यों न उसका होगा विश्वास ।
यही था अग्नि - परीक्षा मर्म ।
हो न जिससे जग मे उपहास ।।४५।।

अनिच्छा से हो खिन्न नितान्त ।
किया था मैंने ही यह काम ।।
प्रिया का ही था यह प्रस्ताव ।
न लाञ्छित हो जिससे मम नाम ॥४६।।

पर कहाँ सफल हुआ उद्देश ।
लग रहा है जब वृथा कलंक ।।
किसी कुल - वाला पर वन वक्र ।
जब पड़ी लोक - दृष्टि निशंक ॥४७॥