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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/८०

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वैदेही-वनवास

आपकी कुत्सा किसी तरह ।
सहज ममता है सह पाती।
पर सुने पूज्या की निन्दा।
आग तन में है लग जाती ॥५९।।

सँभल कर वे मुँह को खोलें।
राज्य में है जिनको बसना ॥
चाहता है यह मेरा जी।
रजक की खिचवाले रसना ॥६०॥

प्रमादी होंगे ही कितने ।
मसल मैं उनको सकता हूँ।
क्यों न बकनेवाले समझे ।
बहक कर क्या मैं बकता हूँ ॥६१॥

अंध अंधापन से दिव की।
न दिवता कम होगी जो भर ॥
धूल जिसने रवि पर फेकी ।
गिरी वह उसके ही मुंह पर ॥६२।।

जलधि का क्या बिगड़ेगा जो।
गरल कुछ अहि उसमें उगले ॥
न होगी सरिता में हलचल।
यदि बहॅक कुछ मेंढक उछले ॥६३॥