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तृतीय सर्ग

दमन या दण्ड नीति मुझको ।
कभी भी रही नही प्यारी ।।
न यद्यपि छोड सका उनको ।
रहे जो इनके अधिकारी ॥८४॥

चतुष्पद
रहेगी भव मे कैसे शान्ति ।
क्रूरता किया करे जो क्रूर ।।
तो हुआ लोकाराधन कहाँ।
लोक - कण्टक जो हुये न दूर ।।८५।।

लोक-हित संमृति-शान्ति निमित्त ।
हुआ यद्यपि दुरन्त -- संग्राम ।।
किन्तु दशमुख, गन्धर्व - विनाश ।
पातको का ही था परिणाम ॥८६॥

है क्षमा- योग्य न अत्याचार ।
उचित है दण्डनीय का दण्ड ।।
निवारण करना है कर्तव्य ।
किसी पाषण्डी का पाषण्ड ॥८७॥

आर्त लोगों का मार्मिक - कष्ट ।
बहु - निरपराधो का संहार ।।
बाल - वृद्धो का करुण - विलाप ।
विवश - जनता का हाहाकार ।।८८।।