दोनों ने अपने-अपने अश्व संभाले और आगे बढ़े। सूर्य ढलने लगा। दोनों यात्रियों की पीठ पर उसकी पीली धूप पड़ रही थी। मल्लिका ने कहा—"रात्रि कहां व्यतीत होगी, प्रिय?"
"ब्राह्मणों के मल्लिग्राम में, वहां मेरे मित्र सांकृत्य ब्राह्मण हैं, जो मल्ल जनपद में ख्यातिप्राप्त योद्धा हैं। वे हमारा सत्कार करेंगे। वह सामने अचिरावती की श्वेत धार दीख रही है प्रिये, उसी के तट पर उन सघन वृक्षों के झुरमुट के पीछे मल्लिग्राम है। घोड़े को बढ़ाओ, हम एक मुहूर्त में वहां पहुंच जाते हैं।"
दोनों ने अपने-अपने अश्व फेंके। असील जानवर अपने-अपने अधिरोहियों का संकेत पा हवा में तैरने लगे। सान्ध्य समीर और कोमल होकर उनकी पीठ पर थपकियां दे रहा था।
ग्राम सामने आ गया। अचिरावती की श्वेत धारा रजत-सिकताकणों में मन्द प्रवाह से बह रही थी। अश्वारोहियों ने अपने-अपने घोड़ों की लगाम ढीली की। अश्व तृप्त होकर शीतल जल पीने लगे।
एक तरुणी मशक पीठ पर लिए नदी-तीर पर आई। उसके पिंगल केश हवा में लहरा रहे थे। कन्धों पर होकर श्वेत ऊनी कम्बल वक्ष ढांप रहा था। कमर में लाल दुकूल था। यात्रियों को देखकर तरुणी ने कहा—
"कहां से आ रहे हो प्रिय अतिथियो!"
"कुशीनारा से।"
"जहां बन्धुल मल्ल रहते हैं?"
"मैं बन्धुल मल्ल हूं।"
"तुम? तो ये श्रीमती मल्लिका हैं, स्वागत बहिन, मैं सांकृत्य गौतम की पुत्री हूं।"
"तू लोमड़ी गोपा है?" बन्धुल हंसते हुए घोड़े से उतर पड़े।"
"मैं जल भर लूं तब चलें, पिता घर पर ही हैं, देखकर प्रसन्न होंगे।"
"तू अश्व को थाम, मैं जल भरता हूं।"
"ऐसा ही सही।" गोपा ने मशक बन्धुल को दे दी। बन्धुल ने मशक भरकर कन्धे पर रखी। गोपा घोड़े की रास थामे पैदल चली। मल्लिका अश्व पर सवार रही।
"आज किधर भूल पड़े बन्धुल?"
"भूल नहीं पड़ा, इच्छा से आया हूं।"
"बहुत दिन बाद!"
"सचमुच, तब तू बहुत छोटी थी।"
"पर मैं तुम्हें याद करती थी बन्धुल! देवी मल्लिका, अब कितने दिन मेरे पास रहेगी?"
"आज रात-भर गोपा, तुझे सोने न दूंगी, खूब गप्पें होंगी। क्यों?"
"मित्र गौतम करते क्या हैं?"
"वही सूत्र रचते हैं। हंसी आती है बन्धुल, सूत्र में एक मात्रा कर पाते हैं तो खूब हंसते हैं।"
"और अहल्या रोकती नहीं?"