पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१०२

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तेरा धर्मसूत्र और न्यायदर्शन कुछ न कर पाएगा।"

"देखा जाएगा मित्र। ले मैरेय पी, ला गोपा, गर्म-गर्म भुने-कुरकुरे मांस-खण्ड दे। कह, कैसे हैं मित्र!"

"बड़े स्वादिष्ट, मुझे नमक के साथ भुने-कुरकुरे मांस में बहुत स्वाद आता है।"

"तो यथेच्छा खा मित्र!"

"खूब खा रहा हूं। परन्तु मित्र गौतम, तुम जो ब्राह्मणों को अन्य जातियों से उत्कर्ष देते हो, यह ठीक नहीं है।"

"वाह, ठीक क्यों नहीं है? देखते नहीं, इन रज्जुलों ने ब्रह्मवाद को लेकर परिषद् प्रारम्भ की है और उसमें वे गुरुपद धारण किए बैठे हैं। वे ब्राह्मणों को हीन बनाना चाहते हैं। देखा नहीं, उस अश्वपति कैकेय ने मेरे साथ कैसा नीच व्यवहार किया था। मेरे पुत्र ही के सामने मेरा अपमान किया और मुझे समित्पाणि होकर उसके आगे जाना पड़ा। उसने गर्व से कहा—"बैठ गौतम, ब्राह्मणों में सबसे प्रथम मैं तुझे यह ब्रह्मविद्या बताता हूं, आज से प्रथम किसी ब्राह्मण को यह विद्या नहीं आती थी।"

"फिर वह गुह्य विद्या तो तुम सीख आए मित्र?"

"खाक सीख आया। अरे कुछ विद्या भी हो! छल है छल। कोरा पाखण्ड! यज्ञ के ब्रह्मा को बना दिया ब्रह्म! पहले ब्रह्मा को लूट के माल में काफी हिस्सा देना पड़ता था, उनके अधीन रहना पड़ता था, उनके द्वारा यज्ञ-अनुष्ठान कराकर महाराज और सम्राट् की उपाधि ली जाती थी। पर अब तो वे ब्रह्म को जान गए, ब्रह्मज्ञानी हो गए। अरे मित्र बन्धुल, इस ब्रह्म के ढकोसले को मैं अच्छी तरह समझ गया हूं।"

"तो मुझे भी तो समझा मित्र गौतम!"

"सीधी बात है मित्र, यज्ञों में देवताओं के नाम पर गन्ध-शाली का भात, वत्सतरी का मांस और कौशेय, दास-दासी, हिरण्य-सुवर्ण, वडवा रथ दिया जाता था और समझा जाता था—यह देवता की कृपा से है; पर तुम जानते हो मित्र, ये भाग्यहीन देवता भी पूरे ढकोसले ही थे। इनमें से किसी एक को भी आज तक किसी ने देखा नहीं। अब लोग यह सन्देह न करेंगे कि ये देवता सचमुच हैं भी या नहीं? बस, इन सबों ने बैठे-ठाले ब्रह्म की कल्पना कर ली। उसे देखने की कोई इच्छा ही नहीं कर सकता। वह आकाश की भांति देखने-सुनने का विषय ही नहीं।"

गौतम खूब ठठाकर हंसने लगे। बन्धुल ने भी हंसकर कहा—"तो इसी में आरुणि जैसे ब्राह्मण भी भटक गए।"

"यही तो मज़ा है और उस याज्ञवल्क्य को देखो, इन विदेहों के पीछे कैसे गुड़ का चिऊंटा बनकर चिपटा है पट्ठा, उनके ब्रह्म की ऐसी गम्भीर व्याख्या करता है मित्र, कि देखकर हंसी आती है।"

"तो तुम हंसा करो गौतम। क्योंकि तुम मूर्ख हो मित्र, ऐसा न करे तो वह सहस्र स्वर्ण कार्षापण और सहस्र गौ कहां से पाए! तू भी यदि उनकी हां में हां मिलाए तो कदाचित् अहल्या कौशेय पहने।"

उसकी मुझे आवश्यकता नहीं मित्र! यह रज्जुलों के कौशल हैं, राजभोग को भोगने के लिए यह आवश्यक है, कि जो सन्देह करे उसकी बुद्धि को कुण्ठित कर दिया जाए; कुछ